जिम्मेदारियों का बोझ
जिम्मेदारियों का बोझ
“सुनो, बच्चे बड़े हो गए हैं। कोई घर में आए, तो अब बुरा लगता है। आपसे पहले भी कहा था कि पुराना फर्नीचर बदल लेते हैं।” सुधा ने याद दिलवाया।
“हूं” कहते हुए प्रेम जी ने बेहाल सोफे का जायका लेते हुए नज़र फेर ली।
“मम्मी यार, यह बाद में देख लेंगे। पापा, आपसे पहले भी कहा था कि मुझे अपना काम शुरु करना है। कुछ लोन मिल जाएगा, कुछ आप देख लो ना…!” बेटे मोहित ने उम्मीद से उनकी तरफ देखते हुए कहा।
सोचों में डूबे ही थे कि याद आया कि कुछ दिन पहले बेटी श्रुति ने भी अपने पांव पर खड़े होने के लिए किसी महंगे कोर्स में एडमिशन की बात की थी। पल भर को नज़र बेटी से मिली… उम्मीद और नाउम्मीदी दोनों ही उसकी नज़रों में झलक रही थी। पापा की मजबूरी समझ रही थी, इसलिए, … चुपचाप भाई के पीछे जा कर खड़ी हो गई। जाने क्यों, श्रुति का मोहित के पीछे जाकर छुपना उन्हें अंदर तक हिला गया।
“मेरा मोहित दूसरा प्रेम नहीं बनेगा” , वे मन ही संकल्प कर चुके थे।
खैर, अभी सबसे ज्यादा ज़रूरी बच्चों के भविष्य के लिए एक मोटी रकम का इंतजाम करना था। याद आया, पिछले महीने ही एफडी तुड़वा कर, पिता जी को छोटे भाई के लिए दुकान खरीदने के लिए पैसे भेजे थे। दुकान तो उन्होंने खरीदी नहीं थी, सो पैसे उन्हीं के पास थे। झट से उन्होंने पिता जी को फोन मिलाया।
हाल चाल पूछने के बाद वो बोले,
“पिता जी, दुकान तो अभी खरीदी नहीं है, वो अगर आप पैसे वापिस दे देते… कुछ जरूरत है।”
“बेटा ! वो तो तेरे भाई के लिए बैंक में जमा करवा दिए हैं, कुछ ब्याज आता रहेगा। दुकानों के दाम जैसे ही थोड़े कम होंगे, खरीद लेंगे।” छोटे की तरफ उनका झुकाव कुछ ज्यादा ही था और प्रेम पैसे वापिस मांगेगा, इसकी उनको कतई उम्मीद नहीं थी।
“पिता जी, आपको पैसों के लिए फोन न करता। पर क्या करूं, मोहित और श्रुति के भविष्य का सवाल है।” परिस्थितियों से परस्त प्रेम जी बोले।
“मुझे लगा, तुम छोटे को अपने बच्चों की तरह ही समझते हो। खैर, कोई बात नहीं… भेजता हूं तुम्हारे पैसे। पिता जी की आवाज़ में कुछ रोष था।
“पिता जी। छोटे का भविष्य सुधारने के लिए मैंने कभी भी मना नहीं किया है। आपके पोते पोती शुरु से ही पढ़ाई में अच्छे थे, इसलिए उनकी पढ़ाई का खर्चा न के बराबर था। पर अब … उनके भी भविष्य का सवाल है।” वे कुछ रुक कर बोले।”
“बेटे, पैसा तो मैं कल ही भेज दूंगा। पर, मैंने दुनिया देखी है। एक सलाह देता हूं, अभी मोहित पर खर्चा कर ले। एक दो साल में जब वो बिजनेस में जम जाएगा, श्रुति को वह खुद पढ़ा लेगा।” पिता जी उसे समझाते हुए बोले।
“नहीं पिता जी, श्रुति मेरी जिम्मेदारी है। आज आपको एक बात बोलूं? कर्तव्य से मैं कभी पीछे नहीं हटा। पर, जिम्मेदारियों का बोझ…” बोलते बोलते थोड़ा रुक से गए, “सच में बहुत भारी होता है।” , उनकी आवाज़ भारी हो गई थी।
सकपका तो पिता जी भी गए थे। कर्तव्य और जिम्मेदारियों के बीच की महीन रेखा का फर्क वे खुद ही न जानते थे और जिम्मेदारियों का बोझ कितना भारी होता है, बेटे की भीगी आवाज़ ने उन्हें बतला दिया था।
अंजु गुप्ता