गीतिका
गायब है मुस्कान अधर से
हर व्यक्ति कंपित है ड़र से
अहसासो की कब्र खुदी है
कहीं चले हम दूर शहर से
बहती मिले जहां जल धार
बहते हो झरने निर्झर से
जहां पे बोली खग की हो
गाये कोयल मधुरिम स्वर से
मिले बाग तो करे आराम
मिटे थकन, जो मिली सफर से
न हो घुटन, धूमक और शोर
गुजरे हम जिस और जिधर से
न हो तनाव जहां, न अभिमान
डरे वक्त के कोप, कहर से
रहे जहां सब अपनेपन से
बचे नीच और बुरी नजर से
— शालिनी शर्मा