गैर सरकारी संस्थाओं के संचालकों के कर्त्तव्य एवं कार्यरत कर्मचारियों का भविश्य
यह एक हकीकत है कि योग्य एवं निष्ठावान व्यक्तियों के नेतृत्व के अभाव में करोड़ों की लागत से बनी अनेक संस्थाएँ अपनी निर्धारित गतिविधियों का संचालन सही रूप से नहीं कर पा रही हैं। चिन्तनशील, कर्मठ एवं योग्य संचालकों (पदाधिकारियों) की कमी उन संस्थाओं में हमेशा खलती है। कोई भी संस्था (निजी एवं धार्मिक) अपने संचालकों से यह अपेक्षा हमेशा रखती है कि वे चिंतनशील, विवेकशील, समय के साथ चलने वाले एवं अपने कार्यों के प्रति सचेत हो। अपने सहयोगियों की उपेक्षा-वृत्ति, दुर्भावना, अविश्वास, भेदभावपूर्ण आचरण एवं व्यवहार के कारण चंद संचालकों की मनोस्थिति प्रायः स्पश्ट रूप से प्रकट नहीं होती है। मात्र सामान्य जानकारी के चलते वे संस्था की व्यवस्थाओं को संचालित करने, उत्तरदायित्वों तथा कर्तव्यों के पालन में खुद को इस प्रकार उलझा लेते हैं कि कई-कई बार तो उचित निर्णय लेने एवं उसे क्रियान्वित करने में भी वे व्यवधान पैदा करने के निमित्त बनते है।
कई संस्थाएँ पर्याप्त रूप से समृद्ध हैं, लेकिन वे अपने उद्देश्यों के अनुरूप कोई भी कार्य ढ़ंग से नहीं कर पा रही हैं। साथ ही साथ योग्य एवं निष्ठावान व्यक्तियों को भी संस्थाओं से जोड़ा नहीं जा रहा है। योग्य व्यक्ति की एक विशेषता होती है कि वह अल्प साधनों में भी कुछ नया करिश्मा करके दिखा सकता है और इसके विपरीत अयोग्य व्यक्ति अनेक साधनों के बीच में भी कुछ विशेष नहीं कर पाता।
संस्थाओं की व्यवस्थाओं एवं कार्यप्रणालियों का संचालन इस प्रकार किया जाए कि जिससे स्वयं में भी कोई दोश न लगें, साथ ही साथ सहयोग करने वाले साथियों, अधिनस्थ कर्मचारियों की समस्याओं तथा उनकी भावनाओं का भी विवेकपूर्ण एवं मर्यादाओं के अनुकूल सम्यक् समाधान हो जाय। हाँ, एक बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि जो समयावधि ;ज्पउम च्मतपवकद्ध आपको संस्था के संचालन के लिए मिली है उसमें आप अपनी भूमिका कितनी अच्छे से निभा सकते हैं? यहाँ पर यह देखने की कतई आवश्यकता नहीं है कि पिछलों ने क्या-क्या किया? बल्कि यह देखियें कि आप अपनी योग्यता के बल पर उनसे बेहतर क्या कर सकते हैं।
यहाँ पर यह जानना जरूरी है कि किसी भी संस्था में कार्यरत कर्मचारियों के भी अपने-अपने गुण एवं योग्यताएँ होती है। एक व्यक्ति किसी एक कार्य में योग्य या निपुण होता है तो दूसरा किसी दूसरे कार्य में। व्यक्ति की योग्यता के अनुसार ही उसे कार्य या जिम्मेदारी दी जानी चाहिये, जिससे समय और श्रम दोनों की बचत हो सके। साथ-ही-साथ उनके कार्यों का सम्मान भी समय-समय पर किया जाना चाहिए। उनके कार्यप्रणाली में सहयोगी बन उन्हें तनाव मुक्त रह कर कार्य करने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए। एक बात तो सौ प्रतिशत सही है कि जहाँ विनय, मधुरता, सरलता, समर्पण एवं संतोश है, वहाँ तनाव रह ही नहीं सकता। परन्तु जहाँ पर भी इन गुणों का जितना अभाव होगा उतना ही व्यक्ति तनावग्रस्त रहेगा और जो तनावग्रस्त होगा वह बाह्य एवं आन्तरिक रूप से अपने कर्तव्य के मार्ग से भटक जायेगा। अतः हम सभी को हमेशा तनावमुक्त रहना चाहिये।
अक्सर यह देखा जाता है कि अयोग्य कर्मचारी को महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ या तो किसी प्रभावशाली व्यक्ति की सिफारिश की वजह से या उसके कम वेतन पर कार्य करने की स्वीकृति पर सौंप दी जाती हैं। कुछ संचालकों की अनुचित महत्त्वाकांक्षाएँ, अकुशल नेतृत्व और कमजोर प्रबन्धन का होना ही प्रायः ऐसी स्थितियों के लिए जिम्मेदार होता है। उनकी इसी भावना के चलते वह संस्था गर्त की और अग्रसर होती है।
इसी कारण आज कुशल कर्मचारियों की योग्यता, प्रतिभा एवं क्षमताओं का समुचित विकास नहीं हो पा रहा है। उनके सम्यक् शंकाओं का भी उचित समाधान नहीं हो पाता। सही तरीके से कार्य करना भी उन्हें भार स्वरूप प्रतीत होता है। अपने कार्यो के प्रति जितनी उमंग, कार्य के प्रति रुचि, उत्साह, सजगता एवं सतर्कता उनमें होनी चाहिये, प्रायः अब देखने को नहीं मिलती। इसी मनोस्थिति के चलते हुए कोई भी कर्मचारी बुरा होता हुआ देखते हुए भी मात्र मनोबल के अभाव में बुराई को बुरा कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। उसकी दुविधाओं, भावनाओं एवं मनःस्थिति को समझने का शीर्षस्थों (संचालकों) के पास समय ही नहीं होता है। क्या ऐसी किसी भी संस्था के संचालक अपने अहं और महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु अपने अधिनस्थ कर्मचारियों को कहीं भ्रमित तो नहीं कर रहे हैं?
अपने उद्देश्यों, कर्तव्यों, दायित्वों एवं सिद्धान्तों के प्रति जानते हुए भी उपेक्षावृत्ति रखना प्रायः तनाव का प्रमुख कारण होता है। अदूरदर्शिता एवं अज्ञान ही लक्ष्यों एवं सिद्धान्तों के प्रति अविश्वास पैदा कर उन्हें स्वछंद बनाता है। यही एक कारण है कि स्व-सुधार की उपेक्षा कर, पर-सुधार करने को ज्यादा महत्त्व दिया जाता है। इसी प्रकार की छोटी-छोटी भूलें किसी को भी अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों से भटका सकती हैं।
वैसे तो हर किसी संस्था के कार्य करने का अपना-अपना तरीका होता है। विवेकशील संचालकों को यह भी चिन्तन करना चाहिए कि हमारे अधीनस्थ कार्य करने वाले सभी कर्मचारी हमारे अपने हैं एवं हम सभी एक परिवार की तरह ही है। उनकी सुख-सुविधाएँ (सरकारी एवं निजी व्यावसायिक सेवाएँ को देखते हुए जहाँ तक आवश्यक हो), आत्म-सम्मान (आत्म-सम्मान का सही-सही आंकलन), कार्य करने की स्वतन्त्रता (अनुशासन के साथ विश्वास), उचित वेतन (आर्थिक स्पर्धा के युग में एक निश्चित मापदण्ड के साथ) एवं रोजगार की सुरक्षा ( किसी व्यक्ति की आजीविका पर एकाएक चोटकर देना यह भी न्यायपूर्ण नहीं है)। ऐसी और भी न जाने कई समस्याओं का सही-सही मूल्यांकन कर तथा उनका सम्यक् समाधान निकाल के उन्हें रोजगार की सुरक्षा के भय से भी मुक्त रखा जाना चाहिए। जब तक सेवा देने वाले कर्मचारियों की भावना, उनके कार्य करने की क्षमता एवं उनकी कार्य के प्रति समर्पण के भावों का आदर नहीं किया जायेगा तब तक किसी भी संस्था को सही दिशा में ले जाना बहुत ही कठिन होगा। इन सभी के लिए संचालकों में सद्भावना, करुणाभाव, विवेक, सामजस्य एवं व्यापक दृष्टिकोण के भावों का होना बहुत आवश्यक है।
सम्पूर्ण विश्व में धार्मिक संस्थाओं की भी कोई कमी नहीं है और इनमें जैन धार्मिक संस्थाएँ भी अनेकों हैं। क्योंकि जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसे अपनाकर कोई भी व्यक्ति अपने जीवन कोे सही दिशा में ले जा सकता है। इसी धर्म के आगम शास्त्रों में बताया गया है कि छह काय (पृथ्वी, अप्, तेऊ, वायु, वनस्पति एवं त्रस काय) के जीवों की हिंसा के साथ-साथ किसी भी प्रकार की हिंसा का पूर्ण रूप से त्याज्य है। गुरु भगवन्त (संत एवं सती मण्डल) अपने पावन प्रवचनों के माध्यम से बार-बार हमें यही उपदेश देते हैं कि-‘‘दया पालो।’’ ऐसी संस्थाओं के संचालकों में भी करुणा, दया एवं वात्सल्य भावना का गुण भी अवश्य होने चाहिए।
अंत में मैं अपने निजी अनुभव के आधार पर एक सुझाव यहाँ पर सभी संस्थाओं के संचालकों एवं पदाधिकारियों को देना चाहुँगा कि किसी भी संस्था में राजनीति ;च्वसपजपबेद्ध का कोई स्थान नहीं है। क्योंकि राजनीति एक ऐसा दीमक ;ज्मतउपजमद्ध है जो किसी भी सुन्दर भवन की नींव को ध्वस्त कर सकता है। विशेषकर धार्मिक संस्था में तो कतई नहीं। प्रायः यह देखा गया है कि कुछ लोग अपने अहं एवं निजी स्वार्थप्रवृत्तिवश वहाँ भी राजनीति करने से नहीं चूकते। ऐसी संस्थाओं के संचालन का मूल उद्देश्य तो मात्र सेवा भावना ही होना चाहिए। अपने-अपने धर्म के बारे में अधिक-से-अधिक लोगों को जागरूक कर उन्हें धर्म से जोड़ने के साथ अपने धर्म का ज्यादा-से-ज्यादा प्रचार करना ही उनका मूल उद्देश्य होता है।
आज के इस आधुनिक दौर में जिस किसी भी संस्था में राजनीति का प्रवेश हो जाता है तो वह संस्था अपने मूल उद्देश्यों से पूर्ण तरीके से भटक जाती है। यह एक गहरी चिन्ता का विषय है एवं सभी संस्थाओं को इस पर चिन्तन-मनन अवश्य करना चाहिए।
— राजीव नेपालिया (माथुर)