कविता

जंगल में चुनाव का साल

सुन चुनाव की बात समूचा, जंगल ही हो उठा अधीर।

माँस चीथनेवाले हिंसक, खाने लगे महेरी खीर।।

धर्म-कर्म का हुआ जागरण, आलस उड़ कर हुआ कपूर।

देने लगे दुहाई सत की, असत हो उठा कोसों दूर।।

बिकने लगे जनेऊ जमकर, दिखने लगे तिलक तिरपुण्ड।

बीहड़ के मरियल नायक भी, बन बैठे सब सण्ड-मुसण्ड।।

ऊपर से मतभेद भुलाकर, भीतर भरे रखे मन भेद।

तू-तू मैं-मैं करके सरके, घर के आसमान में छेद।।

श्वान न्यौतने लगे बिल्लियाँ, बिल्ली न्यौते मूषक राज।

देखी दरियादिली बाज की, बुलबुल की कर उठा मसाज।।

लूलों ने तलवार थाम ली, लँगड़े चढ़ने लगे पहाड़।

बूढ़े श्वान भूलकर भौं भौं, भाषण में दे रहे दहाड़।।

भालू भैंस भेड़िए गीदड़, गिद्ध तेंदुए  चीते चील।

बकरी बन्दर बाघिन बगुले, साँवर गैंडे हिरन अबील।।

एक दूसरे के सब दुश्मन, हुए इकट्ठे वन में यार।

चले सोचकर खास करेंगे, बबर शेर का आज शिकार।।

हुए इकट्ठे सारे पट्ठे, लट्ठे से गट्ठे मजबूत।

दिखता ऊपर प्रेम प्रगाढा, भीतर भरा द्वेष का भूत।।

शेर मारकर कच्चा खा लूँ, बेटे को दे कर तलवार।

राजतिलक करने को आतुर, बूढ़ी बाघिन है तैयार।।

भूखी बाघिन सोच रही है, रानी माँ सी जाऊँ चीन। 

वन की सत्ता हो बेटे की, कर लूँ पशु पक्षी आधीन।।

लगे जुगाड़ों में हैं कौए, तिकड़म में हर मुर्दा खोर।

गिद्ध जटायु सिद्ध बन बैठा, मन्त्र पढ रहा चीटी चोर।।

भक्ति भेड़ियों ने ओढ़ी है, करने लगे कठिन उपवास।

खुद के थूक निगल कर गीदड़, बुझा रहे हैं अपनी प्यास।।

भोले बाबा बनकर भालू, देने लगे अभय आशीष।

जियो और जीने दो सबकी, रक्षा करें द्वारिकाधीश।।

भैंसे भूल गए मंगल में, जंगल के लंगर कानून।

लंगूरों ने पहन लिए है, भगवा वसन और पतलून।

बकरी से भयभीत कसाई, दुबके हैं मानो बलहीन।

हिरण हो गए जीते चीते-चीते बचे साठ के तीन।।

हुए तेंदुए अक्कड़-लक्कड़- लक्कड़ बग्घे सूँघ जमीन।

माँसा हारी घास चबाते, शाकाहारी हैं भय हीन।।

बन्दर बता रहे हैं वन में, किसके लिए कौन सी घास।

किसी समय भी किसी घाट पर, सभी बुझा सकते हैं प्यास।।

ऐसी गठी एकता सबमें, लगता भुला दिया हर बैर।

कोई नहीं किसी का बैरी, सभी माँगते सबकी खैर।।

लेकिन डर है टिकट बटे तो, हो सकते हैं दूर हुजूर।

हो न एकता का मंसूबा, एक साँस में  चकनाचूर।।

ऐसा हुआ समझ लो तो फिर, होंगे सभी सिंह के मीत।

तोड़ संगठन आयेंगे ही, गीर सिंह की होगी जीत।।

लगीधुकधुकी है विपक्ष में, सत्ता पक्ष रहा कुछ सोच।

दो दहाड़ फिर फूट डाल कर, जोड़ो बली छोड़ संकोच।।

प्रथम टिकट की मारा मारी, ऊपर से महंगी परवाज।

फिर चुनाव लड़ने की खुजली, बढ़ने लगी कोढ़ में खाज।।

सुन दहाड़ असली नाहर की, नकली छोड़ चले घरबार।

कुछ असली बच गए अकल से, पहुँचे शेष सिंह दरबार।।

कहने लगे दूसरो से सब, निकले सबके सब मुरदार।

और इस तरह जंगल भर में, हुए शिकारी स्वयं शिकार।।

— गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”

गिरेन्द्र सिंह भदौरिया "प्राण"

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