कविता – प्यार
यह धूप भी,
बड़ी निर्दयी है,
जरूरत होती है,
तब नहीं निकलती है,
जब जरूरत नहीं होती,
तब आंँखें फाड़कर,
देखा करती है,
ठीक तुम्हारी तरह!
आज जरूरत है,
तुम्हारी,
वैसे जरूरत तो,
सदा थी तुम्हारी!
जब तुम थी,
तब कुछ कम थी,
तुम हो,
यह यकीन था,
वैसे जरूरत तो,
सदैव थी तुम्हारी!
जब तुम थी,
तब कुछ कम थी,
नदी उफान पर थी,
हवा अनुकूल थी!
आज उतार है,
नदी का,
विपरीत है,
हवा का बहाव!
तुझे अगर मैं,
छोड़कर जाता,
तो लगाती तू,
और तेरी अंतरंग,
सहेलियां आरोप,
कहतीं,
बेवफा होते हैं,
मरद,
हमसफर!
तूने भी तो,
वादा किया था,
जन्मों – जन्मांतरों तक,
साथ निभाने का,
साथ रहने का,
साथ चलने का!
मैं जानता हूं,
इसमें तेरा कुछ,
दोष नहीं,
वश नहीं,
उसके आगे तो,
किसी की चलती नहीं!
मुझे तुमसे,
कोई शिकवा नहीं,
तू खुश रहे,
जहां भी रहे!
यह मेरा,
बड़प्पन नहीं,
यह मेरा स्वारथ है,
क्योंकि मैं तो,
सदा से तेरा अहित,
नहीं चाहा है,
और,
नहीं चाहूंगा!
मेरी दुआएं,
तेरे लिए,
मेरी अंतिम,
मंजिल तक,
निकलेंगी,
क्योंकि,
मैंने तुझे प्यार किया है,
और प्यार तो,
दुआएं ही,
देता आया है,
सदा – सदा से!!
— सतीश “बब्बा”