चिंता अथवा चिन्तन: आवश्यक क्या?
मन हमारा बड़ा ही चंचल एवं विचित्र है। चिंता भी वही करता है व चिन्तन भी। लेकिन चिंता व चिन्तन में बहुत बड़ा अन्तर है। चिंता आर्त्तध्यान को व चिंतन धर्मध्यान को दर्शाता है। जहाँ चिंता मन में गहरा अवसाद ;क्मचतमेेपवदद्ध एवं उदासी ;ैंकदमेेद्धपैदा करती है। इसके चलते अच्छी-बुरी अनेक आशंकाएँ मन में घर कर लेती है। जबकि चिन्तन में हार्दिक प्रसन्नता, उल्लास, आनन्द एवं आश्वस्तता बनी रहती है। चिंता करने से सामने अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है और चिंतन में प्राणी आलोकित हो जाता है। जहाँ चिंता मन में रही ऊर्जा ;म्दमतहलद्ध का क्षय करके उसे निस्तेज बनाती है। वही चिंतन से ऊर्जा के अक्षय स्रोत खुल जाते हैं। जीवन में तेजस्विता बढ़ जाती है।
चिंता कहती है- ‘‘ना जाने परिणाम क्या होगा?, कैसा होगा?, ऐसा-वैसा हो गया तो क्या होगा?, मैं बरबाद हो जाऊँगा। मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है?’’ जबकि चिन्तन कहता है कि- ‘‘जो भी होगा, जैसा भी होगा, अच्छा ही होगा। जो मेरी किस्मत में लिखा होगा वही सब तो होगा और यह किस्मत भी मेरे स्वयं के द्वारा ही बनाई हुई है, किसी दूसरे के नहीं।’’
जो व्यक्ति निरन्तर चिंता में मग्न रहता है, उसका आत्मबल धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है। उसे हर संबल निर्बल महसूस होता है। उसकी प्रज्ञा कुंठित हो जाती है, बुद्धि में जड़ता छा जाती है। उसका स्वभाव प्रायः खोया-खोया, रूक्ष अथवा चिड़चिड़ा सा हो जाता है। जबकि चिंतन से अनेकों अन्तःशक्तियाँ (ज्ञान एवं प्रज्ञा) जाग्रत हो जाती है, बुद्धि विकसित हो जाती है।
चिंता में सोचने विचारने की क्षमता में कमी आ जाने से चिंतन कुंद हो जाता है। ज्ञान में कमी आती है। कंठस्थ ज्ञान भी विस्मृत हो जाता है। स्मरणशक्ति कमजोर हो जाती है। चिंता बुरे समय अर्थात् दुर्भाग्य के समान है जिसमें प्राप्त हुआ ज्ञान, बुद्धि, आनन्द, क्षमताएँ सब धीरे-धीरे चली जाती है, जबकि चिन्तन अच्छे समय अर्थात् सद्भाग्य जैसा है, जिसमें इन सबकी वृद्धि ही होती है।
चिंता का भूत, वर्तमान व भविष्यकाल तीनों ही दुःखमय होता है। इसीलिये इसे चिता की उपमा दी गई है। चिता का काम पकाना नहीं, बल्कि जलाना होता है। दरिद्र से दरिद्र व्यक्ति अथवा बड़े से बड़ा सेठ चाहे कोई भी हो चिता सबके शरीर को जला देती है। चिता में जलकर श्रेष्ठ पुद्गलों का बना शरीर भी राख हो जाता है। उसी प्रकार चिंता भी सब कुछ जलाती ही है, अतः चिंता का त्याग करें। चिंता का त्याग करना दुःख एवं दुःख वृद्धि के कारणों का त्याग करना होता है।
चिंता को त्यागना अथवा उसे जीवन से निकालने के लिये अपने सोचने का नजरिया बदलना आवश्यक है। चिंतामुक्त जीवन जीने के निम्न बिन्दु है- 1. सकारात्मक सोच, 2. कर्म सिद्धान्त पर विश्वास और 3. कार्य कारण भाव पर दृढ़ चिंतन।
— राजीव नेपालिया (माथुर)