गजल – मंजिलें अपनी हैं कुछ दूर
मंजिलें अपनी है कुछ दूर जरा धीरज धर
अभी चलना है बहुत दूर जरा धीरज धर
तू परेशान ना हो उनकी बेवफाई से
वक्त का है यही दस्तूर जरा धीरज धर
हमको उम्मीद थी कुछ न्याय मिलेगा उनसे
उलझे उलझे लगे हुजुर जरा धीरज धर
जो बन के बैठे हैं सरताज आसमानों पर
टूटेगा उनका भी गरुर जरा धीरज धर
कांटे राहों में सर पे धूप पाँव में छाले
फिर भी चलना तो है जरुर जरा धीरज धर
रात बाकी है अभी मय की कुछ कमी भी नहीं
हल्का हल्का रहे सुरुर जरा धीरज धर
— महेश शर्मा धार