नारी
गीतों से भी है
प्यारी साधना
तो है हमारी
उजालों की रत्न है।
चमक से चमके
हीरा जैसे सख्त है।
नसों में बहती
लाल रंग की रक्त है।
प्रेम सदा यह देती
नारी प्रियवर की
सदा ये भक्त है।
चाहत को
यह पा लिया।
फूलों से है
यह डालियां।
जज्बातों में यह
बहती है।
धूप थपेड़े
सब सहती है।
सबको यह सहलाती है,
गीत नया सुनाती है।
काम अभी खत्म नहीं हुआ,
अंत में आखिर खाती है।
नीत भोर में ही उठ जाती है।
सुख शांति का पाठ करके,
भोजन यही बनाती है।
रुखा सुखा खाकर अपना,
जी भर मन बहलाती है।
घर आंगन में चहकती है,
फूलों सा महकती है।
दिव्य प्रकाश है इसके अंदर,
आभा की ये लगती समुंदर।
पति प्रेम को प्यारी है,
ससुराल में राज दुलारी है।
रूठना मनाना तो कभी-कभी,
प्रज्ञा प्रेम दुलारी है।
जिद में आ जाए जब,
सावित्री प्राण बचाए तब।
मौत से भी लड़ जाती है,
रणचंडी जब ठन जाती है।
पर इनका अब मान कहां,
होते सदा अपमान यहां।
घुट पीकर ये जीती है,
यही यहां की रीति है।
कुचलते हैं पैरों से,
लगती है अब गैरों से।
मान और अपमान कहां,
इनके अंदर अब जान कहां।
इतिहास इनके अंदर समाया है,
रचना करने का भाव जगाया है।
कपूतों को पैदा करके,
अपना दूध पिलाया है।
इस धरा में नारी से नर है,
अपना मान बढ़ाया है।
योग्यता नारी की,
दुनियां को बताया है।
— कमलेश “लोहा”