ग़ज़ल
हटा नक़ाब जो कहने को दास्ताॅं के लिए।
वो फिर से झूम के नाची थी इस जहाॅं के लिए।।
सुनी जहाॅं ने कहानी मचा यूं शोर भी था।
भरी थी ऑंख मुहब्बत के आशियाॅं के लिए।।
सभी थे मौन कहां शोर था किसी ने सुना।
सिसक रही थी वो अपने ही मेहरबाॅं के लिए।।
न लय न साज न आवाज़ टूटे दिल से हुई।
जुबाॅं खुली थी फकत अपने जानेजाॅं के लिए।।
किया था उसने भरोसा वो आयेंगे ही कभी।
कभी तो दर्द होगा उजड़ते खिजां के लिए।।
— प्रीती श्रीवास्तव