भाषा-साहित्य

बच्चों के लिए मां के दूध के समान है मातृभाषा

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसरण में शैक्षणिक सत्र 2025-26 से पूर्व प्राथमिक से पांचवीं कक्षा तक मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने की पहल कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। मातृभाषा में शिक्षा मिलने से बच्चा आसानी से विषय को समझ पाता है। उसका आत्मविश्वास बढ़ता है। इस तरह मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा बच्चे के बौद्धिक विकास में सहायक होती है। मातृभाषा प्राथमिक शिक्षा का स्वाभाविक और सर्वाधिक समर्थ माध्यम है। बच्चे चूंकि मातृभाषा अथवा घर में बोली जाने वाली भाषा जल्द से जल्द सीख लेते हैं इसलिए शिक्षा के माध्यम को परिचित भाषा में ढालने में सहायता मिलती है और भाषा शिक्षण की पद्धति को वैज्ञानिक ढंग से लागू करने की राह सुगम होती है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुसरण में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या ढांचा की सिफारिश के अनुसार कक्षा एक से पांच तक बच्चा अपनी मातृभाषा में पढ़ाई करेगा। इस दौरान वह अपनी पसंद के मुताबिक एक दूसरी भाषा भी पढ़ेगा। जब वह छठी कक्षा में जाएगा तो वह तीसरी भाषा पढ़ेगा। बुनियादी चरण में यानी पूर्व प्राथमिक से दूसरी कक्षा और आयु की दृष्टि से तीन से आठ वर्ष में पढ़ाई मातृभाषा में होनी है। इस चरण में बच्चे पहली भाषा यानी मातृभाषा में पढ़ना लिखना समझना सीखेंगे। दूसरी भाषा को महज मौखिक रूप से बच्चों से परिचित कराया जाना है। तीसरी से पांचवीं कक्षा की आयु यानी करीब 11 वर्ष तक के बच्चे दूसरे विषयों की पढ़ाई भी मातृभाषा में करेंगे। यदि छात्र मौखिक भाषा (दूसरी भाषा) में पर्याप्त दक्षता प्राप्त कर लेते हैं तो उन्हें परिवर्तन की अनुमति दी जा सकती है।
एक बहुभाषिक देश होने के कारण भारत में भाषा-प्रयोग की दृष्टि से एक बड़ी चुनौती यह है कि ऐसी कई भाषाएं हैं जिनकी कोई अपनी लिपि नहीं है और वे अभी भी मौखिक रूप में ही प्रचलित हैं। इसीलिए जहां मातृभाषा में लेखन की परंपरा न हो, जहां कक्षा में भाषाई विविधता हो, वहां राष्ट्रीय शिक्षा नीति में परिवर्तन की छूट दी गई है। इससे मातृभाषा और बहुभाषावाद दोनों को बढ़ावा मिलेगा। इसे ध्यान में रखने की जरूरत है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति भाषाओं को एक-दूसरे की किसी प्रतिद्वं‌द्विता में नहीं रखती, न वह उन्हें बांधती या रोकती ही है। वह उन्हें अपने विकास के लिए मुक्त करती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की गई है, जहां बहुभाषावाद का न केवल स्वागत किया जाएगा, बल्कि सीखने की क्षमता को बढ़ाने के लिए इसका लाभ उठाया जाएगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति एक सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ सहज, स्वाभाविक और नैसर्गिक प्रक्रिया के तहत दूसरी भाषाएं भी सीखने-सिखाने की सुविधा देती है।
भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। संविधान की आठवीं अनुसूची में अभिलिखित 22 भाषाओं के अतिरिक्त कई अन्य भाषाएं भी हैं। भारत सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारत की अनेकानेक मातृभाषाओं में स्कूली शिक्षा का जो विकल्प दिया है, उसे पूरा करने की दृष्टि से केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान द्वारा हाल में जारी किए गए भारतीय भाषाओं में प्राइमर और तेरह भाषाओं में विशेष मॉड्यूल बेहद उपयोगी होंगे। अब तक 13 भाषाओं में प्राइमर तैयार किए जा चुके हैं, जिनमें कश्मीरी (फारसी-अरबी), सिंधी (देवनागरी), सिंधी (फारसी-अरबी), कश्मीरी (देवनागरी), बाल्टी, संताली, ज़ेमी, उर्दू, संगतम, लाई (पावी), गोंडी-तेलुगू, भीली (वागड़ी) और चोकरी शामिल हैं। कुल प्राइमर की संख्या 117 हो गई है। भारतीय भाषाओं में ये प्राइमर केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (सीआईआईएल) और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा विकसित किए गए हैं।
117 भारतीय भाषाओं में विकसित प्राइमर का उ‌द्देश्य शिक्षार्थी की मूल भाषा में संदर्भ-समृद्ध सामग्रियों के माध्यम से प्रारंभिक स्तर पर पढ़ने और लिखने की सुविधा प्रदान करना, कम उम्र से भाषा के साथ भावनात्मक और सांस्कृतिक संबंध को बढ़ावा देना और संज्ञानात्मक विकास और सामाजिक एकीकरण के आधार के रूप में बहुभाषा सीखने की सुविधा देना है। छोटे बच्चों के लिए, ये प्राइमर भविष्य की शिक्षा और संज्ञानात्मक विकास के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करते हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने मातृभाषा में शिक्षा का अवसर देकर महात्मा गांधी के सपने को भी पूरा किया है। गांधी जी ने ‘हरिजन’ के 09-07-1938 के अंक में मातृभाषा में स्कूली जीवन में शिक्षा नहीं दिए जाने के नुकसान का विवरण दिया है और लिखा है कि गणित, रसायनशास्त्र और ज्योतिष सीखने में उन्हें चार साल लगे, उतना उन्होंने एक ही साल में आसानी से सीख लिया होता, अगर अंग्रेजी के बजाय उन्हें गुजराती में पढ़ा होता। उस हालत में आसानी और स्पष्टता के साथ इन विषयों को वे समझ लेते। गुजराती का उनका शब्द ज्ञान कहीं ज्यादा समृद्ध हो गया होता और उस ज्ञान का उन्होंने अपने घर में उपयोग किया हाता। स्कूली जीवन के स्वयं के अनुभव से गांधीजी इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि हर तरह की शिक्षा मातृभाषा में ही उत्तम ढंग से दी जा सकती है। गांधी जी मातृभाषा को मां के दूध के बराबर मानते थे। उन्होंने कहा था, ‘मातृभाषा मनुष्य के मानसिक विकास के लिए उसी प्रकार स्वाभाविक है, जिस प्रकार मां का दूध शिशु के शरीर के विकास के लिए। शिशु अपना पहला पाठ मां से सीखता है। इसलिए बच्चों के मानसिक विकास के लिए उनके ऊपर मातृभाषा के अलावा कोई और भाषा थोपना मैं मातृभूमि के लिए पापाचार समझता हूं।’
गांधी जी के विचारों के आईने में राष्ट्रीय शिक्षा नीति मातृभाषा में पर्यावरण, जीवन कौशल, मानव अधिकार की शिक्षा देने पर भी बल देती है, वहीं प्रौ‌द्योगिकी के कारण ज्ञानार्जन के तौर तरीक़ों में आ रहे परिवर्तनों पर भी उसका ध्यान है। वाचिक से लिखित होते हुए डिजिटल संसार में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का कैसे उपयोग हो, इसका भी उसमें प्रावधान है।
हम उम्मीद कर सकते हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन से बच्चे खेल-खेल में कविताएं कंठस्थ करेंगे। गिनती और पहाड़ा सीखेंगे। बुनियादी अभिवादन, भाव, अक्षर, संख्याएं सीखेंगे। वे विभिन्न वाद्ययंत्रों की पहचान करना सीखेंगे। मसालों, सब्जियों और फलों के नाम भी सीखेंगे। श्रवण कौशल को बढ़ाएंगे। विभिन्न क्षेत्रों के राष्ट्रीय नायकों के बारे में जानेंगे। भौतिक मानचित्रों के माध्यम से नदियों, पहाड़ों और ऐतिहासिक स्मारकों के बारे में जानेंगे और और अपने परिवेश, समुदाय तथा देश के साथ रागात्मक संबंध महसूस करेंगे।

— विजय गर्ग

*विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट

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