“भोर “
“भोर ”
भोर होने से ठीक पहले
अपने पंख फड़फड़ाती हैं चिड़ियाँ
किरणों की नौक के चुभते ही
कलियों की
खिल उठती हैं पंखुरियाँ
अंधेरों के छटते ही
सफ़ेद चूने सी
उजागर होने लगती हैं
अनुशासित गगनचुंबी इमारते
और जमीन पर लड़खडाती हुई सी
खडी हुई झोपड़ियाँ
घने कुहरे की आड़ में
दुबकी रहती हैं
ओस से भींगी घास
और ठण्ड से कांपती पत्तियाँ
गाय की ममता छलकने लगती हैं
रम्भाने लगते हैं
बछड़े और बछियाँ
सिरपर गगरी का बोझ रखे
लौटती हुई
दिखाई देती हैं पनिहारिनियाँ
निकल पड़ते हैं कतारबद्ध हो
नीले आसमान में सफ़ेद बगुले
तलाशने वह तट
जहां ज़रा
ठिठकी सी लगतीं नदियाँ
दूर दूर तक नज़र आती हैं
बबूल ,पीपल ,बरगद
या नीम की झुकी हुई
कड़वी डालियाँ
सुबह के रंग में उमंग हैं
शाम को
उदास सी लगती हैं
निस्तब्ध घाटियाँ
थकी हुई सी
धीरे धीरे चलती हुई
लगती हैं फिर से
सूनी पगडंडियाँ
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत खूब !