बूँद से मोती बनो.
समुद्र के पानी की इक बूँद ,
अशुद्ध पानी की इक खारी बूँद।,
सूर्य की तपस सह कर ,
वाष्प का रूप धर कर ,
हवा के थपेड़ों को सहती हुई ,
आकाश की और उड़ती हुई,
बन गई एक बादल का अंश,
और फिर टकरा कर पर्वत से,
फिर से बन गई एक शीतल बूँद,
अब तो मिला पावन ,स्वच्छ ,
और विशुद्ध निर्मल रूप ,
मिट गया सारा दोष और विकार,
रुख कर लिया उसने-
फिर धरती की ओर –
किसी प्यासे की प्यास बुझाने,
कोई हरा भरा खेत लहलहाने
औरअब तो किस्मत से-
आ पड़ी सीप के मुंह में,
और बन गई एक अनमोल मोती,
हमें दे गई एक सन्देश — आगे बड़ो,
तपस सहो, थपेड़े सहो ,
पर्वतो से टकरा जाओ,
दूर कर सारे दोष और विकार—
अपनी मेहनत और लगन से —
आगे बढ़ते हुए,
सफलता के शिखर पर पहुँच जाओ,
अनमोल मोती बन जाओ,—जय प्रकाश भाटिया
अच्छी कविता !