मासूम दुधमुहाँ बचपन
मासूम दुधमुहाँ बचपन
क्रेच और डे केयर की भेंट चढ़ा
मासूम गुमसुम बचपन
जिन नन्हे फूलों को खिलना पनपना
चाहिए माँ के आँचल , घर की छाया में
वह आज 8 से 8 भागती बेलगाम ज़िन्दगी
का भोग रहे खामिज़ा हैं
और तलाश रहा बचपन में ही अपना बचपन
खुद ही गिरते खुद ही संभलते
खुद रोते खुद ही चुप हो जाते
क्यूंकि कौन आकर हाथ थाम
आंसू पोंछ गले से लगा ले
इधर तो खुद से ही खुद को
संभालना, सहलाना, दुलारना है
इन मासूमों ने अपना नन्हा सा आशियाना
बना रखा है इसे जहाँ बस एक
अनकहा, अनदेखा खालीपन सा
जिसे नन्हे कोशिश करते
कभी हंस कर कभी रो कर
कभी खेल कर कभी आपस में लड़ कर
फिर थक हार सो जाते यहीं
बेबस मासूम गेरों में ढूँढ़ते अपनों की छवि
जो हर मुमकिन कोशिश कर भी मिल नहीं पाती
जब देर साँझ ढले आते माँ और पिता लेने
होती एक अजीब सी कशमश
कौन सा है घर अपना
जहाँ हम सिर्फ सोते हैं
या जहाँ हम पूरा दिन बिताते हैं
वजह चाहे जो भी हम कहीं न कहीं खुद ही
गुनहगार हैं इन मासूमों के खोते बचपन के
जिन के सुख के लिए भाग रहे घर के दोनों जीव
क्या दे पा रहे हैं वो सुख इन को
कर के गेरों के हवाले
माँ से बढ़ कर कोई विकल्प नहीं होता
फिर चाहे वो डे- केयर हो या फुल टाइम मैड
देख इन मासूमों की सूनी ऑंखें भर भर आता
है दिल …….काश कोई समझ सके इन की खामोश सदा ||
तहे दिल से बेहद शुक्रिया विजय जी
बहुत खूब !