ग़ज़ल
अरे ये ज़माने के मंज़र तो देखो सियासत में जलते हुए घर तो देखो जो इंसां को इंसां समझते नहीं
Read More“पूरे चौदह बरस बाद मैं वापस अपने गांव जा रहा हूं। इस बार की दीवाली सूनी रहेगी। न तो पटाखे
Read Moreआज भी मुझे उसका मासूम चेहरा याद है। उस का नाम चांदनी था। दो-तीन महीने पहले ही उसने हमारे घर
Read Moreआओ कुछ ऐसा कर जाएंकदमों के अपने निशां छोड़ जाएं मानव जीवन मिला अनमोलसेवा में समर्पित हो जाएंहोठों पे मुस्कान
Read Moreढलती हुई ये साँझ,लिका छुप्पी खेलते तारे,चाँदनी को भर,आगोश में अपने,चिड़ा रहा था,चंदा भी! ऐसी ही भीगी-भीगीचांदनी रात में,मिले थे
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