Author: सौरभ कुमार दुबे

कविता

उनकी आत्माएँ लुट रही हैँ और हमारी आत्माएँ बिक चुकी हैँ…

अब उनकी सिसकियाँ नीँद नहीँ तोडतीँ, उनकी चीत्कारेँ हृदय को नहीँ झकझोरती, रोज़ टीवी के चैनलोँ पर चीखती हैँ, अखबार

Read More