Author: डॉ. शैलेश शुक्ला

राजनीति

आकाशवाणी की गूंज: भारत में रेडियो प्रसारण का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विकास

भारत में रेडियो प्रसारण की शुरुआत एक ऐतिहासिक घटना के रूप में दर्ज है, जिसने संचार के आधुनिक युग का उद्घाटन

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खाद्य पदार्थों का खेत से थाली तक हो सुरक्षित सफ़र

हर साल 7 जून को मनाया जाने वाला विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस न केवल उपभोक्ताओं को सुरक्षित भोजन के प्रति जागरूक करने का अवसर है, बल्कि यह पूरी वैश्विक खाद्य प्रणाली की समीक्षा करने का भी क्षण है। आज जब विज्ञान और तकनीक का स्तर चाँद तक पहुँच गया है, तब भी करोड़ों लोग या तो दूषित भोजन के कारण बीमार पड़ रहे हैं या असुरक्षित खाद्य उत्पादों का शिकार बन रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, हर साल लगभग 42 लाख लोग असुरक्षित खाद्य के सेवन से मर जाते हैं, जिसमें से बच्चों की संख्या चिंताजनक रूप से अधिक है। ऐसे में यह दिवस सिर्फ सूचना देने या कार्यक्रम आयोजित करने का दिन नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए वैश्विक और स्थानीय स्तर पर ठोस नीति निर्माण का दिन बनना चाहिए। भारत जैसे विकासशील देशों में जहां जनसंख्या घनत्व अधिक है और खाद्य श्रृंखला की निगरानी सीमित है, वहाँ यह मुद्दा और भी गंभीर हो जाता है। भोजन की गुणवत्ता केवल स्वाद और पोषण का मामला नहीं, बल्कि यह एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है। आजकल बाजार में आसानी से उपलब्ध हो जाने वाले पैक्ड फूड, स्ट्रीट फूड और प्रोसेस्ड सामग्री में भारी मात्रा में कीटनाशकों, रसायनों, प्रिज़र्वेटिव्स और मिलावट का प्रयोग हो रहा है। फलों पर वैक्सिंग, दूध में डिटर्जेंट, मावा में सिंथेटिक पदार्थ और तेल में खतरनाक रसायनों की मिलावट आम होती जा रही है। खाद्य सुरक्षा केवल बड़ी कंपनियों की ज़िम्मेदारी नहीं हो सकती, इसके लिए स्थानीय विक्रेताओं से लेकर रेस्तरां मालिकों, होटलों और यहां तक कि आम गृहणियों तक को जागरूक करना होगा। उपभोक्ता को भी यह जानने का अधिकार है कि उसके भोजन में क्या मिलाया गया है और किस प्रक्रिया से वह उनके घर तक पहुँचा है। यह पारदर्शिता तभी संभव है जब खाद्य सुरक्षा के नियम सख्त हों और उनका पालन सुनिश्चित करने के लिए एक स्वतंत्र और जवाबदेह व्यवस्था स्थापित की जाए। भारत में FSSAI (भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण) इस दिशा में कई सकारात्मक कदम उठा रहा है, जैसे ‘ईट राइट इंडिया’, ‘फूड लाइसेंसिंग’ और ‘स्वच्छ भारत मिशन’ से जोड़कर खाद्य मानकों को बेहतर करना। लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि गाँवों, कस्बों और यहां तक कि बड़े शहरों में भी खाद्य निरीक्षण तंत्र बेहद कमजोर है। कई रेस्तराँ बिना लाइसेंस के कार्यरत हैं, खुलेआम अस्वास्थ्यकर खाना परोसा जा रहा है और ग्रामीण क्षेत्रों में तो खाद्य प्रयोगशालाएं ही उपलब्ध नहीं हैं। यही कारण है कि हर साल फूड पॉइज़निंग, डायरिया, हेपेटाइटिस और अन्य बीमारियों के हज़ारों मामले सामने आते हैं। यह सवाल पूछना ज़रूरी है कि जब भोजन जीवन की पहली आवश्यकता है, तो उसके सुरक्षित होने की गारंटी क्यों नहीं है? क्या यह समय नहीं है कि खाद्य सुरक्षा को भी स्वास्थ्य सेवा की तरह एक मौलिक अधिकार घोषित किया जाए? खाद्य सुरक्षा केवल स्वच्छता और रसायन मुक्त भोजन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह खाद्य श्रृंखला के हर चरण – उत्पादन, संग्रहण, परिवहन, प्रसंस्करण, बिक्री और उपभोग – में गुणवत्ता की निगरानी से जुड़ी है। उदाहरण के लिए, यदि कोई किसान कीटनाशक का अत्यधिक प्रयोग कर रहा है या अनाज को प्लास्टिक में खुले में रख रहा है, तो वह खाद्य असुरक्षा की शुरुआत है। उसी प्रकार, यदि गोदाम में रखे अनाज में नमी के कारण फफूंदी लग रही है या ट्रांसपोर्टेशन के दौरान खुले ट्रकों में खाद्य सामग्री धूल और धूप में प्रभावित हो रही है, तो वह स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है। इसलिए यह ज़रूरी है कि खाद्य श्रृंखला के हर स्तर पर प्रशिक्षण, लाइसेंसिंग और सतत निगरानी की व्यवस्था हो। डिजिटल ट्रैकिंग, QR कोड आधारित खाद्य ट्रेसिंग और उपभोक्ता फीडबैक जैसे तकनीकी उपायों को अनिवार्य किया जाना चाहिए। खाद्य सुरक्षा की बात करते समय हमें स्कूलों, आंगनवाड़ियों और सामुदायिक भोजन केंद्रों को भी नहीं भूलना चाहिए। ये वे स्थान हैं जहाँ लाखों बच्चे और महिलाएं प्रतिदिन खाना खाते हैं और यदि यहां की गुणवत्ता खराब हो, तो इसके गंभीर सामाजिक परिणाम हो सकते हैं। मिड डे मील योजना में अक्सर ख़बरें आती हैं कि बच्चों को कीड़े लगे भोजन दिए गए, या रसोईघर में स्वच्छता का अभाव है। यह महज़ लापरवाही नहीं, बल्कि अपराध है। इसके अलावा, सरकारी अस्पतालों, जेलों और वृद्धाश्रमों में दिया जाने वाला भोजन भी गुणवत्ता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। ये संस्थागत स्थान सरकार की सीधी ज़िम्मेदारी हैं और यदि यहाँ खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती, तो फिर सार्वजनिक स्वास्थ्य की बातें खोखली लगती हैं। खाद्य निरीक्षण दलों को इन जगहों पर नियमित और औचक जांच करने का अधिकार तथा संसाधन मिलना चाहिए। आज की वैश्विक परिस्थितियों में खाद्य सुरक्षा का संबंध केवल स्वास्थ्य से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, पर्यावरणीय स्थिरता और सामाजिक न्याय से भी जुड़ गया है। जलवायु परिवर्तन, असंतुलित कृषि नीति, जल संकट और जैव विविधता की क्षति भी अब खाद्य गुणवत्ता को प्रभावित कर रही हैं। यदि मछलियों में पारा की मात्रा बढ़ रही है, तो वह समुद्र की गंदगी का परिणाम है। यदि सब्जियों में नाइट्रेट की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुँच रही है, तो वह ज़मीन की रासायनिक थकावट का संकेत है। इन समस्याओं से निपटने के लिए केवल खाद्य मंत्रालय नहीं, बल्कि पर्यावरण, जल संसाधन, ग्रामीण विकास और शहरी नियोजन विभागों को मिलकर काम करना होगा। बहुस्तरीय नीति और क्रॉस सेक्टोरल प्लानिंग के बिना खाद्य सुरक्षा एक सपना ही बनी रहेगी। विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस 2025 का विषय है “Safe Food Now for a Healthy Tomorrow” – यानी ‘आज का सुरक्षित भोजन ही कल का स्वस्थ भविष्य तय करेगा’। यह नारा अपने आप में एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है। यदि हम आज बच्चों को दूषित खाना खिलाते हैं, तो हम एक बीमार और कमजोर पीढ़ी की नींव रख रहे हैं। यदि हम आज किसानों को केवल रासायनिक खेती की ओर धकेलते हैं, तो हम कल की ज़मीन को बंजर बना रहे हैं। यह समय है जब सरकार, उद्योग, किसान, उपभोक्ता और शिक्षा जगत – सभी मिलकर खाद्य सुरक्षा को एक राष्ट्र-निर्माण की प्राथमिकता बनाएं। केवल विज्ञापन, पोस्टर और एक दिन के उत्सव से कुछ नहीं बदलेगा। बदलाव तभी आएगा जब हर थाली में आने वाले कौर के पीछे एक ईमानदार और पारदर्शी प्रक्रिया होगी। आख़िर में, खाद्य सुरक्षा केवल ‘क्या खा रहे हैं’ का सवाल नहीं, बल्कि ‘कैसे, कहाँ और किसके माध्यम से खा रहे हैं’ – इसका भी उत्तर मांगता है। जब तक समाज का हर व्यक्ति इस जिम्मेदारी को साझा नहीं करता, तब तक लाखों लोगों की सेहत, भविष्य और ज़िन्दगी असुरक्षित बनी रहेगी। विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस 2025 हमें यही याद दिलाने आया है कि सुरक्षित भोजन कोई विशेषाधिकार नहीं, बल्कि एक सार्वभौमिक मानवीय अधिकार है। और यह अधिकार तब तक अधूरा है जब तक उसे समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति तक सुनिश्चित न किया जाए।

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