गीतिका/ग़ज़ल *वर्षा वार्ष्णेय 17/05/2018 दर्द दर्द को रूह में उतारकर हमने जो लिखी रुसवाई , तड़फकर दुनिया भी कह उठी ये कहाँ से शबे गम Read More
कविता *वर्षा वार्ष्णेय 17/05/2018 गृहिणी हां मैं सिर्फ एक हाउसवाइफ ही तो हूँ समाज की नजरों में जिसका कोई वजूद नहीं । सपनों को आंखों Read More
कविता *वर्षा वार्ष्णेय 25/04/2018 हाउसवाइफ हां मैं सिर्फ एक हाउसवाइफ ही तो हूँ समाज की नजरों में जिसका कोई वजूद नहीं । सपनों को आंखों Read More
कविता *वर्षा वार्ष्णेय 25/04/2018 इश्क़ जीने की आरजू में रोज मरते हैं , हम वो परवाने हैं जो इश्क़ की आग में रोज खुद को Read More
कविता *वर्षा वार्ष्णेय 17/04/2018 मौसम देखकर मौसम का मिजाज कोई भूला याद आता है । न जाने क्यों जिंदगी से कोई अनजान नाता जुड़ जाता Read More
कविता *वर्षा वार्ष्णेय 17/04/2018 जिंदगी जन्नत सी लगती है कभी जमीं तो कभी घने जंगल के मानिंद । देखकर हसीं चेहरा खुश हो जाती , Read More
गीतिका/ग़ज़ल *वर्षा वार्ष्णेय 21/03/2018 जज्बात उबलते हुए जज्बात आंखों के रास्ते , गर्म पानी बनकर बहने लगते हैं जब । उम्मीदें दूर से एक आवाज Read More
कविता *वर्षा वार्ष्णेय 21/03/201821/03/2018 साहित्य साहित्य कोई बहस का मुद्दा नहीं , समाज का दर्पण है दोस्तो । प्रकृति का चिंतन है , प्रेम का Read More
कविता *वर्षा वार्ष्णेय 14/03/2018 आरजू जीने की आरजू में रोज मरते हैं हम वो परवाने हैं जो इश्क़ की आग में खुद को फना करते Read More
गीतिका/ग़ज़ल *वर्षा वार्ष्णेय 13/03/2018 जिंदगी प्यार की रुसबाइयाँ भी अजीज लगने लगी जाने क्यों नफरत की आदत सहज लगने लगी न लिखने का दिल करता Read More