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पंडित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ : भारत माता के अमर क्रांतिकारी सपूत”

पंडित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ का जन्म 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम मुरलीधर था

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अभिलेखों की गूंज : दस्तावेज़ जो इतिहास भी हैं, भविष्य भी

अभिलेख दिवस का औचित्य और वैश्विक परिप्रेक्ष्यहर वर्ष 9 जून को पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय अभिलेख दिवस मनाया जाता है। यह एक ऐसा दिवस है जो उन अभिलेखों को सम्मानित करने के लिए समर्पित है, जो हमारे इतिहास, प्रशासन, समाज और सभ्यता की साक्ष्य-स्वरूप नींव होते हैं। वर्ष 2025 में यह दिन अपनी 16वीं वर्षगांठ मना रहा है और यह अवसर इस बात को समझने का है कि अभिलेख मात्र बीते समय की जानकारी नहीं होते, बल्कि वे भविष्य की योजना और वर्तमान की पारदर्शिता के लिए भी उतने ही आवश्यक हैं। एक समाज की स्मृति शक्ति उसके अभिलेखों में निहित होती है। वे हमें यह बताने का कार्य करते हैं कि किस तरह से एक राष्ट्र ने अपने शासन, नागरिकों और नीतियों के बीच संतुलन बनाया। अंतरराष्ट्रीय अभिलेख परिषद (ICA) के प्रयासों से यह दिन वैश्विक स्तर पर स्वीकृत हुआ है। अभिलेखों का महत्व केवल सरकारी दफ्तरों तक सीमित नहीं है, बल्कि ये व्यक्ति, समुदाय और संस्थानों की समवेत यात्रा का प्रमाण बनते हैं। इस दिवस की स्थापना के पीछे यही भावना रही है कि दुनिया के हर कोने में अभिलेखों की महत्ता को समझा जाए और उन्हें संरक्षण देने के लिए व्यापक सामाजिक सहभागिता को प्रेरित किया जाए। डिजिटल युग में जब सूचनाएँ क्षण भर में बदलती हैं, तब स्थायी दस्तावेजों की भूमिका और भी अधिक निर्णायक बन जाती है। इसी कारण यह दिवस सिर्फ अभिलेखागारों का उत्सव नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक स्मृति को संरक्षित रखने का वैश्विक आह्वान है। अभिलेख क्या हैं : सरल शब्दों में समझना जरूरी क्यों है?‘अभिलेख’ शब्द सुनते ही बहुत से लोगों के मन में यह विचार आता है कि यह केवल पुराने कागजों या फाइलों से जुड़ा हुआ कोई जटिल प्रशासनिक विषय है, जबकि सच्चाई यह है कि अभिलेख हमारे जीवन से जुड़ी हर जानकारी का व्यवस्थित रूप होते हैं। चाहे वह जन्म प्रमाणपत्र हो, एक पुरानी चिट्ठी, एक स्कूल की अंकतालिका, एक पारिवारिक संपत्ति का रजिस्टर, या फिर सरकार द्वारा लिया गया कोई ऐतिहासिक निर्णय — ये सब अभिलेख ही तो हैं। ये वे दस्तावेज होते हैं जो किसी कार्य, निर्णय या प्रक्रिया का साक्ष्य होते हैं। अभिलेखों की उपस्थिति हमारे जीवन को विधिपूर्वक चलाने में सहायक होती है। वे न केवल अतीत का दस्तावेज होते हैं, बल्कि वर्तमान में होने वाले निर्णयों के लिए मार्गदर्शन भी प्रदान करते हैं। जब हम कहते हैं कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है, तो इस लोकतंत्र का आधार जनता की भागीदारी और पारदर्शिता पर आधारित होता है, जिसे सुनिश्चित करने के लिए अभिलेखों का सुरक्षित और सुलभ रहना अत्यंत आवश्यक है। उदाहरणस्वरूप, जब कोई व्यक्ति सूचना के अधिकार के तहत किसी जानकारी की मांग करता है, तो वह उसी अभिलेख प्रणाली पर आधारित होता है। यही कारण है कि हमें बच्चों से लेकर वयस्कों तक, हर किसी को यह सिखाना चाहिए कि अभिलेख केवल सरकारी फाइलें नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक स्मृति, अधिकार और उत्तरदायित्व के आधार हैं। जब यह समझ व्यापक रूप से समाज में विकसित होगी, तभी अभिलेख दिवस का उद्देश्य सार्थक सिद्ध होगा। अभिलेख दिवस का इतिहास : ICA और 9 जून का महत्व9 जून को अंतरराष्ट्रीय अभिलेख दिवस मनाए जाने के पीछे एक ऐतिहासिक कारण है। यह तिथि वर्ष 1948 में अंतरराष्ट्रीय अभिलेख परिषद (International Council on Archives – ICA) की स्थापना की याद में चुनी गई थी। ICA की स्थापना UNESCO के संरक्षण में की गई थी और इसका उद्देश्य दुनिया भर में अभिलेखों की रक्षा, संरक्षण, प्रबंधन और उपयोगिता को बढ़ावा देना था। वर्ष 2007 में ICA ने अपने सदस्यों के बीच यह प्रस्ताव रखा कि 9 जून को हर साल एक दिन अभिलेखों के नाम समर्पित किया जाए। इसका उद्देश्य था समाज में यह जागरूकता फैलाना कि अभिलेख केवल संग्रहालयों में बंद रहने वाली वस्तुएँ नहीं हैं, बल्कि जीवंत समाज और लोकतंत्र का महत्वपूर्ण अंग हैं। इसके बाद से दुनिया भर के कई देशों ने इस दिन को उत्सव के रूप में मनाना शुरू किया। भारत, अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, जापान, दक्षिण अफ्रीका जैसे अनेक देशों में इस दिन को अभिलेखागारों की विशेष प्रदर्शनियों, संगोष्ठियों और नागरिक सहभागिता से जोड़ा गया। भारत में भी राष्ट्रीय अभिलेखागार (NAI) हर वर्ष इस अवसर पर दस्तावेजों की प्रदर्शनी, शोधार्थियों के लिए सेमिनार, अभिलेख प्रबंधन कार्यशालाएं और विद्यार्थियों के लिए जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करता है। यह दिन यह भी बताता है कि इतिहास केवल किताबों में नहीं, बल्कि अभिलेखों की धूल भरी परतों में भी जीवित रहता है — जिसे छूने, पढ़ने और समझने के लिए समाज को आगे आना होगा। भारत में अभिलेखों की परंपरा और राष्ट्रीय अभिलेखागार की भूमिकाभारत में अभिलेख संरक्षण की परंपरा कोई नई बात नहीं है। प्राचीन काल से ही शिलालेख, ताम्रपत्र, पांडुलिपियाँ और भित्तिलेखों के माध्यम से सूचना संचित की जाती रही है। मौर्यकालीन शासन व्यवस्था में राजा चंद्रगुप्त मौर्य और उनके प्रधानमंत्री चाणक्य द्वारा ‘अर्थशास्त्र’ जैसे ग्रंथ में अभिलेखीय प्रक्रियाओं का उल्लेख मिलता है। सम्राट अशोक के शिलालेख भारत के प्राचीनतम अभिलेखों में गिने जाते हैं, जिनमें शासकीय आदेश, नैतिक शिक्षाएँ और प्रशासनिक घोषणाएँ दर्ज हैं। इसके बाद गुप्त वंश, चालुक्य, मौर्य, मुगल और ब्रिटिश काल में भी दस्तावेजी परंपरा आगे बढ़ती रही। आधुनिक भारत में राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Archives of India – NAI) की स्थापना 11 मार्च 1891 को कोलकाता में हुई थी, जिसे बाद में स्वतंत्रता के पश्चात 1911 में नई दिल्ली स्थानांतरित किया गया। यह संस्था आज भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन काम करती है और इसके पास करोड़ों ऐतिहासिक दस्तावेज सुरक्षित हैं, जिनमें मुगलों से लेकर स्वतंत्रता संग्राम और संविधान निर्माण तक की महत्वपूर्ण फाइलें सम्मिलित हैं। इस संस्था का कार्य सिर्फ संग्रह ही नहीं, बल्कि दस्तावेजों का संरक्षण, वर्गीकरण, डिजिटलीकरण और शोधार्थियों को सुविधा उपलब्ध कराना भी है। इसके अलावा, भारत के लगभग हर राज्य में राज्य अभिलेखागार कार्यरत हैं। वर्तमान समय में अनेक निजी संग्रहालय, विश्वविद्यालय और शोध संस्थान भी अभिलेखों के संरक्षण में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। यह कह सकते हैं कि भारत की अभिलेखीय परंपरा ज्ञान, संस्कृति और लोकतंत्र के संरक्षण का मूल आधार है, जिसे जन-जागरूकता से और अधिक मज़बूती दी जा सकती है। डिजिटल युग में अभिलेख संरक्षण की नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ21वीं सदी के वर्तमान डिजिटल युग में जहां सूचना की मात्रा और गति दोनों ने नई ऊँचाइयाँ छू ली हैं, वहीं अभिलेख संरक्षण की दिशा में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। पहले जहां दस्तावेज केवल कागज पर लिखे जाते थे, वहीं अब इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने उन्हें डिजिटल रूप में संजोना संभव बना दिया है। भारत सरकार का ‘डिजिटल इंडिया’ मिशन इस दिशा में एक दूरगामी पहल है, जिसके तहत हजारों ऐतिहासिक और सरकारी अभिलेखों को स्कैन करके डिजिटल प्लेटफॉर्म पर डाला गया है। आज अनेक मंत्रालय और विभाग ‘ई-ऑफिस’ प्रणाली के तहत अपने अभिलेखों को पेपरलेस स्वरूप में संग्रहीत कर रहे हैं। लेकिन इस डिजिटल संक्रमण के साथ-साथ कई चुनौतियाँ भी सामने आई हैं। इनमें साइबर सुरक्षा, डिजिटल डेटा का दीर्घकालिक संरक्षण, फॉर्मेट की अस्थिरता, तकनीकी अपग्रेडेशन की आवश्यकता और डिजिटलीकरण की प्रक्रिया में होने वाली त्रुटियाँ प्रमुख हैं। एक डिजिटल दस्तावेज को 50 वर्षों बाद उसी गुणवत्ता में पढ़ना तभी संभव है जब उसके लिए उपयुक्त तकनीकी संरचना और बैकअप व्यवस्था मौजूद हो। इसके लिए न केवल बेहतर तकनीक, बल्कि प्रशिक्षित अभिलेखाध्यक्षों की आवश्यकता है। साथ ही एक राष्ट्रीय डिजिटल संरक्षा नीति (National Digital Preservation Policy) बनाना समय की मांग है। यदि हम इन चुनौतियों को दूर कर लें, तो डिजिटल अभिलेख आने वाले युगों में हमारे ज्ञान, संस्कृति और शासन की अमूल्य धरोहर बन सकते हैं, जिन्हें दुनिया के किसी भी कोने से देखा, पढ़ा और समझा जा सकेगा। [6] सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI) और अभिलेखों की पारदर्शिता में भूमिकाजब हम लोकतंत्र की बात करते हैं, तो सूचना की पारदर्शिता और नागरिकों की भागीदारी इसका महत्वपूर्ण स्तंभ बनती है। भारत में 2005 में लागू हुआ ‘सूचना का अधिकार अधिनियम’ (Right to

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