आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 31)
कसौली
पिंजौर से थोड़ी दूर कालका से आगे सोलन जिले में कसौली नामक प्रसिद्ध पहाड़ी स्थान है। मेरी बहुत इच्छा थी वहाँ जाने की। बड़ी मुश्किल से एक बार वहाँ जाने का अवसर मिला। साथ में मेरी बहिन गीता और उसका पूरा परिवार भी था, जो एल.टी.सी. पर घूमने आये थे। हम दो गाड़ियों में वहाँ गये थे। सबसे पहले हम मंकी पाॅइंट गये। यह वहाँ का सबसे ऊँचा स्थान है। वहाँ हनुमान जी का मन्दिर भी है और बन्दर बहुत हैं। उस स्थान से कालका, पंचकूला और चंडीगढ़ तीनों शहर साफ दिखाई देते हैं। वहाँ की चढ़ाई थोड़ी कठिन है, परन्तु मेरे लिए कठिन नहीं थी। हम वहाँ के बाजार में ज्यादा नहीं घूम पाये, क्योंकि समय कम था। एक जगह सड़क के किनारे साफ स्थान देखकर और वहीं हैंडपम्प देखकर हमने खाना खाया था, जो हम घर से बनाकर लाये थे। फिर हम पिंजौर देखते हुए वापस आ गये। पिंजौर गार्डन से कसौली का मंकी पाॅइंट साफ दिखाई देता है।
मेरी इच्छा एक बार पिंजौर से कसौली तक पैदल यात्रा करने की थी, परन्तु साथी के अभाव में इसका मौका कभी नहीं आया।
रावण दहन
पंचकूला में हमारे मोहल्ले में एक अच्छी बात थी कि वर्ष में कई त्यौहार सामूहिक रूप से मनाये जाते थे। होली तो हर वर्ष ही सामूहिक होती थी और उस दिन खेल-कूद, तम्बोला, अन्त्याक्षरी आदि के साथ सामूहिक भोजन होता था, जिसके लिए हलवाई लगाया जाता था। प्रायः ऐसा ही दशहरा, दीपावली, नये साल आदि पर होता था। जिस वर्ष हम पहली बार पंचकूला आये उस वर्ष दशहरे पर सामूहिक कार्यक्रम रखा गया था। बगल वाले डा. चड्ढा के पुत्र कुणाल और श्री पंकज सैनी के पुत्र अमोल ने मिलकर एक छोटा सा रावण बनाया था। इससे पहले मैंने कभी रावण बनते नहीं देखा था। उसको बनते देखकर मुझे प्रसन्नता हुई। उसकी सजावट में मैंने भी थोड़ा सा योगदान दिया था। अगले वर्ष फिर दशहरा आया, तो मैंने और कुणाल ने मिलकर और भी बड़ा रावण बनाया। इसकी सजावट में हमारे एक रिश्तेदार के पुत्र लोकेश गर्ग (उर्फ लकी) का भी सहयोग मिला, जो बद्दी के पास नालागढ़ में विप्रो में एकाउंटेंट था। वह रविवारों तथा त्यौहारों पर हमारे यहाँ आ जाता था। यह रावण जब बनकर तैयार हो गया, तो सबको बहुत पसन्द आया। इसमें हमने काफी पटाखे रखे थे, जो देर तक फूटते रहे। सबने इसका खूब आनन्द लिया।
इसके बाद मुझे रावण बनाने का मौका नहीं मिला, क्योंकि सारे बच्चे अपनी-अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गये और इस काम में उनकी रुचि खत्म हो गयी।
आगरा में दीपावली
मेरे पंचकूला स्थानांतरण के बाद नवम्बर 2005 में दीपावली का त्यौहार पड़ा। मैं पिछले एक-डेढ़ साल से आगरा नहीं गया था, इस कारण अपने परिवारियों से नहीं मिल पाया था। इसलिए हमारा विचार दीपावली आगरा में मनाने का हुआ। आगरा में हमारे बहुत रिश्तेदार रहते हैं। अपना घर और ससुराल तो है ही। सबके यहाँ आने-जाने में हमें आॅटोरिक्शा का सहारा लेना पड़ता था और काफी परेशानी भी होती थी। इसलिए हमारा विचार यह बना कि इस बार कार लेकर आगरा जायेंगे। ड्राइवर रवीन्द्र सिंह हमारे पास था ही। वह प्रसन्नता से आगरा जाने को तैयार हो गया।
आगरा जाने से पहले हमने कार की धुलाई-सफाई और जाँच भी कराई, ताकि वह रास्ते में गच्चा न दे जाये। हमारे पास सामान बहुत था, इसलिए सामान रखने के लिए एक स्टैंड खरीदा गया और स्टैंड को कार पर ऊपर लगा दिया गया। हमारा ड्राइवर रवीन्द्र इन कामों में बहुत कुशल है। उससे मैंने भी स्टैंड फिट करने का तरीका सीख लिया। गाड़ी का पहिया बदलना भी मैंने उसी से सीखा।
निर्धारित दिन हम प्रातः 6 बजे ही चल पड़े। दिल्ली तक आराम से पहुँच गये केवल 4 घंटे में, लेकिन दिल्ली पार करने में 2 घंटे लग गये। रास्ते में जलपान किया और एक जगह खाना खाया। किसी तरह शाम को 4 बजे तक हम आगरा पहुँचे। तब तक सब बहुत थक गये थे। हमने इतनी थकान की कल्पना नहीं की थी। सोचा था कि आराम से पहुँच जायेंगे, पर वैसा नहीं हुआ। रास्ते में दीपांक और श्रीमतीजी ने भी कुछ देर हाईवे पर गाड़ी चलायी थी।
आगरा में दीपावली की धूमधाम वैसी ही थी, जैसी हमेशा होती है। अपनी गाड़ी के कारण हम सभी जगह आराम से चले जाते थे। उस समय तक हमारे डा. भाईसाहब के अलावा रिश्तेदारों में केवल कलाकुुंज वाले ताऊजी तथा बस वाले भाईसाहब के पास ही अपनी कारें थीं। अब तो लगभग सभी रिश्तेदारों ने कारें खरीद ली हैं। अपनी कार से हम फतेहपुर सीकरी भी गये थे और उस यात्रा में हमारे साथ हमारे बड़े साढ़ू श्री हरिओम जी भी थे, जो दीपावली पर सूरत से आगरा आये थे।
फतेहपुर सीकरी मैं पहले भी दो बार जा चुका था। इस बार एक मजेदार बात हुई। सलीम चिश्ती की दरगाह के आसपास घूमते हुए एक गाइड ने एक तहखाने की तरफ जाती हुई सीढ़ियाँ दिखाकर कहा कि इस रास्ते से अकबर बादशाह लड़ने जाया करते थे। मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा कि इस तरह चुपके से क्यों जाते थे, मुख्य दरवाजे से जाने में क्या दिक्कत थी? गाइड के पास कोई जबाब नहीं था। मैंने फिर पूछा कि इस रास्ते से वे कैसे जाते थे- पैदल या पालकी में या हाथी-घोड़े पर या साइकिल से? मेरे कथन में छुपे व्यंग्य को वह गाइड समझ गया, लेकिन चुप रहा। दीपांक ने भी मुझे आगे बोलने से रोक दिया। वास्तव में अकबर वहाँ सलीम चिश्ती के परिवार की औरतों से मिलने चोरी-छुपे आया करता था। ऐसा श्री पी.एन. ओक की किताबों में लिखा हुआ है।
फतेहपुर सीकरी के बाहर पीछे की ओर खानवाह का मैदान है, जहाँ बाबर और राणा साँगा में युद्ध हुआ था। इसी युद्ध में जीतने के बाद ही बाबर आगरा पर अधिकार कर सका था। यह बात मुझे मालूम थी, लेकिन गाइड को इस बारे में कुछ मालूम नहीं था। उसे तो यह भी पता नहीं था कि यहाँ खानवाह नाम का कोई लड़ाई का मैदान भी है। वे बस काल्पनिक कहानियाँ सुना-सुनाकर यात्रियों को मूर्ख बनाया करते हैं।
दीपावली के बाद हम आगरा से पंचकूला कार से ही लौटे। लौटने में भी काफी थकान हुई, परन्तु किसी तरह पहुँच गये। वैसे हमारे ड्राइवर रवीन्द्र को आगरा पसन्द नहीं आया। वह इधर से यह सोचकर गया था कि जैसी गाड़ी आगरा ले जा रहा हूँ, वैसी ही वापस ले आऊँगा, लेकिन तमाम सावधानियों के बावजूद गाड़ी में खरोंचें लग ही गयीं। कारण कि आगरा में (और पूरे उत्तर भारत में) सड़क के नियमों का पालन कोई नहीं करता। जिसकी जब जहाँ मर्जी आती है, वहीं घुस पड़ता है। सड़क पर चलते हुए किसी भी गली से कोई भी अचानक प्रकट हो सकता है, जिससे बचने में दुर्घटनायें हो सकती हैं। हमारे साथ कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई, यही सन्तोष की बात है।
चंडीगढ़-पंचकूला की ठंड
चंडीगढ़ पहाड़ों के पास है और दिल्ली से काफी उत्तर में शिमला की ओर है। इसलिए इस बात का मुझे भान था कि वहाँ काफी ठंड पड़ती होगी। मैं दिल्ली में तीन साल रहकर वहाँ की ठंड भुगत चुका था, इसलिए सोचा कि चंडीगढ़ में थोड़ी ज्यादा ठंड होगी। चंडीगढ़ और पंचकूला आपस में सटे होने के कारण और बीच में कोई प्राकृतिक बाधा न होने के कारण दोनों शहरों का मौसम हमेशा लगभग एक सा रहता है। इसलिए पंचकूला में भी काफी ठंड पड़ती थी। रात में बाहर का तापमान कई बार शून्य को छू जाता है और 5-6 डिग्री तक गिर जाना तो मामूली बात है। दिन में भी बाहर का तापमान 12-13 डिग्री ज्यादातर बना रहता है। ऐसी ठंड में बाहर निकलना बहुत कठिन होता है।
यहाँ हमारी कार बहुत काम आयी। मेरा कार्यालय हमारे निवास से केवल 1 किमी दूर है। इसलिए पहले हमारा ड्राइवर रवीन्द्र और बाद में श्रीमती जी रोज कार में मुझे आॅफिस छोड़ आती थीं और ले भी आती थीं। इससे रास्ते में ठंड का अहसास नहीं होता था। संस्थान तो सब ओर से बन्द था, लेकिन काफी ठंडा रहता था। वहाँ बिजली से चलने वाले ब्लोअर काम आते थे। उनसे हालांकि कमरा ज्यादा गर्म नहीं हो पाता था, लेकिन इतना गर्म जरूर हो जाता था कि हम ठंड में ठिठुरे बिना आराम से काम कर सकें।
घर पर भी हम हीटर चलाते थे। परन्तु हरियाणा में बिजली बहुत महँगी है, इसलिए हमने कोयले की अँगीठी लगाना शुरू किया। कम ठंड में शाम को एक बार और अधिक ठंड में सुबह-शाम दोनों बार मैं पीछे वाले खुले स्थान में अँगीठी लगा लेता था। जब सारे कोयले लाल हो जाते थे और धुँआ बन्द हो जाता था, तो अँगीठी को भीतर उठा लाता था। उससे एक बार में तीन-चार घंटे आसानी से गर्मी मिल जाती थी और पूरा घर गर्म हो जाता था।
यहाँ यह बता हूँ कि चंडीगढ़-पंचकूला में अधिकांश मकान ऐसे बनाये जाते हैं जो सभी ओर से बन्द हों। दरवाजे बन्द कर देने पर हवा बाहर से अन्दर बिल्कुल नहीं आ सकती। बाथरूम और शौचालय तक भीतर ही बनाये जाते हैं। इसलिए घर में रहते हुए बाहर निकलने की आवश्यकता प्रायः नहीं पड़ती। दरवाजे बन्द कर लेने पर बाहर का तापमान भले ही 12-13 हो, लेकिन भीतर का तापमान 18-19 बना रहता था, अर्थात् थोड़ी सी ठंड, जो गर्म कपड़ों से सहन की जा सकती थी। कानपुर में हमारे घरों में यह बात नहीं थी। वहाँ किचन, बाथरूम और शौचालय सभी का रास्ता खुले में होकर था। इससे जाड़ों में घर हमेशा ठंडा और गर्मियों में सदा गर्म बना रहता था।
विजय भाई , आज की किश्त भी अच्छी लगी , आगरा मैं भी दो दफा जा आया हूँ और फ़तेह पुर सीकरी भी देखा था ,जिन की फोटो अभी भी मेरी एल्बम में हैं ,बुलंद दरवाज़ा और पंच महल भी देखे थे और एक जगह थी जिस में ऊंचाई से छलांग लगाते और पैसे लेते थे . आगरा फोर्ट भी देखा था . सलीम चिश्ती की दरगाह भे देखि थी , आज फिर सैर हो गई .
धन्यवाद, भाई साहब. वह एक बड़े आकर का कुआं या बावड़ी है, जहाँ से ऊपर से बच्चे कूदते थे और पैसे लेते थे. पहली बार जाने पर हमने भी देखा था. पर अब सरकार ने वह सब बंद करवा दिया है.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद श्री विजय जी। आज की क़िस्त की सभी घटनाएँ रोचक एवं अनुभव में वृद्धि करने वाली हैं। आपकी सैर से अपनी यात्राओं का ध्यान हो आता है। हमने भी परिवार के सदस्यों के साथ अनेक स्थानों की यात्रायें की हैं और आनंद व अनुभव प्राप्त किये हैं। आपने दशहरे के रावण का उल्लेख किया हैं। बचपन में जब हम देहरादून के परेड ग्राऊँड के नाम से विख्यात विशाल मैदान में रावण का पुतला देखने जाते थे तो वहां बहुत भीड़ होती थी। मेला लगा होता था। बच्चे धनुष बाण, गुब्बारे आदि लिए हुवे दिखाई देते थे। उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगता था। अब जाने की इच्छा ही नहीं होती। आयु इस परिवर्तन का कारण है। हार्दिक धन्यवाद।
प्रणाम मान्यवर ! मेरी इच्छा तो आज भी रावण बनाने की होती है। पंचकूला के बाद मैंने आगरा में दो बार रावण बनाया था। बड़ा मज़ा आया। मैं बच्चों के साथ खूब मस्ती करता हूँ क्योंकि मैं मन से आज भी बच्चा ही हूँ।
महोदय हार्दिक धन्यवाद। रावण व कोई अन्य प्रभावशाली पुतला बनाना ज्ञान एवं अनुभव का सम्मिश्रण होता है। बचपन में रावण दहन को देखकर शायद हमारे मन में इस प्रकार के संस्कार उत्पन्न होते हैं। बच्चों के प्रति आपकी भावनाएं एवं स्वाभाव प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय हैं। मैं स्वयं मन ही मन बच्चों एवं युवकों से मित्रता व उनका मार्गदर्शन करना पसंद करता हूँ। इनमे से एक शिक्षा है “अविद्या का नाश एवं विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।” हमारे देश का कल्याण इसी से हो सकता है। धर्म, संस्कृति एवं सभ्यता के क्षेत्र में अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, रूढ़िवादिता, स्वार्थ, शोषण एवं अन्याय आदि बढ़ रहे हैं जिन्हे हमें विवश होकर झेलना पड़ता है और हम कुछ कर नहीं पाते। आपकी प्रतिक्रिया बहुत अच्छी एवं सराहनीय है।
आभार, मान्यवर !