कविता
वक्त के संग उड़ती जा रही हूँ
ग़मों पे अब मैं हँसती जा रही हूँ
छू लूँ आकाश, आरज़ू है ये,
मैं उसी ओर बढ़ती जा रही हूँ ।
दिल उमंगों से है भरा मेरा ,
हर तरफ़ रंग भरती जा रही हूँ।
नाचता है मयूर मन मेरा,
संग सरगम के बहती जा रही हूँ ।
चाँद छुप जाए या ढले सूरज ,
इक दिये सी मैं जलती जा रही हूँ ।
अब बिखरने का क्या डर ‘चन्द्रेश’
रेत सी मैं फिसलती जा रही हूँ ।
— चन्द्रकान्ता सिवाल ‘चन्द्रेश’