कविता
धरा …
खामोशी सी ओढ़े जीवन देती जाती ,
जो सहती बहुत कुछ पर फिर भी ,
सहनशीलता से यूंही बढ़ती जाती ,
अपनी धुरी पर चली जाती यूंही ,
कहीं मौसम से रूबरू कराती ,
कहीं दिन रात यह बनाती ,
कहीं हलचल हो जाए इसके भीतर,
डोल जाए समस्त जनजीवन ही ,
कितने ही उतार चढ़ाव यह सहती ,
जाने कितनी सदियां यूंही बीत जाती,
फिर भी अपनी दिशा में चली जाती ,
खुद का ना कभी एहसान जताती ,
अपने अंदर कंई राज़ यह समेटती ,
बस यूंही अपना अस्तित्व बनाती,
कामनी गुप्ता ***
सुंदर