समान सवैया “वन्दना”
सवाई छंद/समान सवैया/32 मात्रिक छंद “वन्दना”
इतनी ईश दया दिखला कर, सुप्रभात जीवन का ला दो।
अंधकारमय जीवन रातें, दूर गगन में प्रभु भटका दो।।
पथ अनेक मेंरे कष्टों के , जिनमें यह मन भटका रहता।
ज्ञान ज्योति के मैं अभाव में, तमस भरी रातों को सहता।।
मेरे प्रज्ञा-पथ में भारी, ये कुबुद्धि पाषाण पड़े हैं।
विकसित ज्ञान-सरित में सारे, अचल खड़े नगराज
अड़े हैं।।
मेरे जीवन की सुख निंद्रा, मोह-नींद में बदल गयी है।
जीवन की वे सुखकर रातें, अंधकार में पिघल गयी है।।
मेरी वाणी वीणा का अब, बिखर गया हर तार तार है।
वीणा बिन इस गुंजित मन का, अवगूंठित हर भाव-सार है।।
स्वच्छ हृदय के भावों पर है, पसर गया कालिम सा अंबर।
सम्यक ज्ञान-उजास ढके ज्यों, खोटी नीयत हर आडंबर।।
परमेश्वर तेरे मन में तो, दया उदधि रहता लहराता।
अति विशाल इस हृदय-शिखर पर, करुणा का ध्वज है फहराता।।
मेरे हर कर्मों को प्रभु जी, समझो अपनी ही क्रीड़ाएँ।
मन के मेरे दुख कष्टों को, समझो अपनी ही पीड़ाएँ।।
इन नेत्रों के अश्रु बिंदु ही, अर्ध्य तिहारा पूजित पावन।
दुःख भरी ये लम्बी आहें, विमल स्तोत्र हैं मन के भावन।।
नींद रात्रि में जब लेता हूँ, चिर समाधि प्रभु वो है तेरी।
आधि व्याधि के कष्ट सहूँ तो, वो साकार साधना मेरी।।
टूटी फूटी जो वाणी है, मानस भाव व्यक्त करने को।
स्तुति प्रभु मेरी वही समझना, तेरा परम हृदय हरने को।।
इस जीवन की सभी क्रियाएँ, मैं विलीन सब कर दूँ तुझमें।
सकल क्रियाएँ मेरी तेरी, मुझमें तू है, मैं हूँ तुझमें।।
बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया
17-04-2016