रोको अब यह अत्याचार…
रोको अब यह अत्याचार
काटे पेड हजार हजार
खंडित धरती घटता पानी
और प्रदूषित हुई बयार
मानव कुछ तो सोच विचार…
रोको अब यह अत्याचार….
फ्लैटों के ये उगते जंगल
त्राहि त्राहि करते जंगल
बुला रहे हो घोर अमंगल
धरती संग कर रहे दंगल
क्यूँ करते हो यह प्राहार…
रोको अब यह अत्याचार…
सूख रहे नदियाँ तालाब
तलहटी में पहुँची आब
ताकत की ये कैसी दाब
मत देखो जहरीले ख़्वाब
करो न जीवन से खिलवार….
रोको अब यह अत्याचार…..
धूल धुँवा है चारो और
शोर शोर है केवल शोर
घट रही नित जीवन की डोर
हुए सभी कर्तव्य चोर
जीवन करता हाहाकार…..
रोको अब यह अत्याचार…
कुछ तो समझो कुछ तो सोचो
आने वाली नस्लों का
तुले हुए हो जाने क्यूँ तुम
बीज मिटाने फसलों का
बचा सको तो बचा लो अपने
जीवन के तीनों आधार
मिट्टी पानी और बयार….
मिट्टी पानी और बयार….
सतीश बंसल
बहुत सुन्दर कविता बंसल साहब
बहुत सुन्दर कविता बंसल साहब
बहुत सुन्दर !