कविता

पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर कविता

दे दो उसे जीवनदान

घुट रहा है दम
निकल रहे है प्राण।
कोई सुन ले तो
दे दो उसे जीवनदान।
सूख रहे है हलक
मरुस्थल है दूर तलक।
साँस-साँस में कोहरा है
इस दर्द से कोई रो रहा है।
सुन ले कोई चीत्कार
दे दो उसे भी थोड़ा प्यार।
प्रकृति की हो रही विकृति
अवैध खनन के नाम क्षति
पहाड़ों को जा रहा काटा।
बिगड़ रहा है संतुलन
हो रहा है बहुत ही घाटा।
भूकंप, सूनामी धकेल रही
हमें रोज मौत के मुँह।
मंजर ऐसा देख कांप रही है रूह।
फिर भी बन रहा इंसान अनजान
लिख रहा खुद ही मौत का गान।
फूंक रही चिमनिया धुंए की भरमार।
निकाल रहे कारखाने
रासायनिक अपशिष्ट की लार।
नदियों के जल में मिल रहा मल
सोचो, कैसा होगा आने वाला कल !
मृदा का हो रहा अपरदन
ध्वनि के नाम पर भी प्रदूषण।
विकास का ऐसा बन रहा ग्राफ
जंगल और जंतु दोनों हो रहे साफ।
इसलिए जानवर कर रहे है
मानव बस्ती की ओर अतिक्रमण।
डर के मारे दिखा रहे है लोग उन्हें गन।
दरअसल जन बन रहे है जानवर
जानवर बन रहे है जन?
विलुप्त हो रहे हैं संसाधन
कर रहे हम जीवन से खिलवाड़।
काट रहे हरे-भरे वृक्ष
कर रहे है पर्यावरण से छेड़छाड़।
गांव हो रहे है खाली
नगरों की हालत है माली।
जनसंख्या में हो रही है वृद्धि
नेता मान रहे इसे ही उपलब्धि।
केवल गायब नहीं हो रहा पृथ्वी से पानी।
हो रहा है लोगों की आंखों से भी गायब
शर्म और लाज का पानी।
कोई नेता नहीं लड़ता
पृथ्वी बचाने पर इलेक्शन।
कोई नहीं करता
पर्यावरण की दुर्गति पर अनशन।
परियोजनाओं के नाम पर
किया जा रहा पृथ्वी को परेशान।
कोई मेधा कोई अरुंधति बन
दे दो उसे जीवनदान।

देवेन्द्रराज सुथार

देवेन्द्रराज सुथार , अध्ययन -कला संकाय में द्वितीय वर्ष, रचनाएं - विभिन्न हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। पता - गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। पिन कोड - 343025 मोबाईल नंबर - 8101777196 ईमेल - devendrakavi1@gmail.com