कविता – अंतर्द्वंद्व
कभी राह दुर्गम धोखा सा बनाती है
भर पथ में पाहन खड्डे से बताती है.
मिला जो वाट हर पल बैरी डराते है
उसकी चालें अपनों में अंकुश सुनाती है.
जिसे कुदरत सिखाती है जमी का होना
बन चाह खुद बढ़ पंखा लिये हिलाती है.
जिंदगी कुछ पल जीना अंतर्द्वंद्व पाती है
कोमल और कठोर घात प्रतिपल पाती है.
यूँ सभी तो है किसी ना किसी सरोकार मे,
फिर झूठा क्यो होता है सदाचार भुलाती है.
— रेखा मोहन २२/६/१८