कोई तो चीत्कार सुने उसकी
भरी बरसात के मौसम में भी
नदियाँ वीरान सी लगती है
कोई तो चीत्कार सुने उसकी
वह खाली-खाली लगती है।
सारी नदियाँ दूर-दूर तलक
बंजर जमीन सी लगती है
बन गई शहर का कूड़ादान
इसे देख नदियाँ सिहरती है।
आज नदियाँ मैली लगती है
नाली सी वह काली हो गई
गंदे पानी से हुई वह कुत्सित
मीठे जल से वंचित हो गई।
सारे घाटों का बंदरबाट हुआ
सुना-सुना पनघट घाट हुआ
सब जीव-जंतु पानी को तरसे
पूरी नदियाँ श्मशान घाट हुआ।
यह नदियाँ हमेशा चीख रहीं
कोई तो उसकी पुकार सुनो
गङ्गा की तरह यह भी लहराए
कोई तो उसकी गुहार सुनो।
— अशोक पटेल “आशु”