कविता

महंगाई

मज़ाक अच्छा है कि महंगाई है,
सच्चाई यह है कि इसमें तनिक न सच्चाई है।
जरा हमें भी तो बताइए
कहाँ कहाँ महंगाई है
लोगों के रहन सहन को देख
भला ऐसा लगता है?
फैशन का जलवा बढ़ता जा रहा है,
अन्न का निरादर रोज रोज हो रहा है
खाने से ज्यादा फेंका जा रहा है
कूड़े कचरे, नालियों, सड़कों पर
अन्नपूर्णा का मान हम कितना कर रहे हैं
आँख वालों को क्या अधों को भी दिख रहा है।
रोज रोज कंक्रीट के जंगल बढ़ते जा रहे हैं
नई नई गाड़ियों के शौक सरेआम
सड़कों पर बोझ बढ़ा रहे हैं।
हम कहते हैं महंगाई है,
मां बाप साथ रहते तभी तक महंगाई है
जुआ, शराब, किटी पार्टी, रेस्टोरेंट और
फास्ट फूड में कितना उड़ाते हैं,
जबरन शौक से अपना स्टेटस बनाते हैं,
महंगाई का तो सिर्फ रोना रोते हैं।
महंगाई है नहीं हमने महंगाई को
खलनायक बना दिया है,
रहन सहन के सरल, सहज
सादगी, सामंजस्य के संतुलन से
हमनें तलाक ले लिया है।
आखिर हमारे पुरखों ने भी तो
अपना जीवन भरपूर जिया है
हमें पाला पोसा, पढ़ाया, लिखाया, बड़ा किया है
अपना हर फ़र्ज़ भी निभाया है।
तब तो न इतनी सुविधाएं थीं और न ही धन।
फिर भी न उन्होंने अपने दायित्व से मुंह मोड़ा
न दुनियादारी छोड़ी,
न रोना रोया अभावों या महंगाई का।
मगर हम हैं कि आज सिर्फ रोना रो रहे हैं
सच तोयह है कि हम जीवन जीने के
तरीके नित भूलते जा रहे हैं,
सारा का सारा दोष थोक में
महंगाई के सिर पर मढ़ते जा रहे हैं
अपना चाल, चरित्र, चेहरा शंदेखने के बजाय
सिर्फ महंगाई का रोना रो रहे हैं
अपने को सबसे असहाय प्राणी होने का
तमगा अपने माथे पर लगवा रहे हैं
महंगाई को बढ़ावा भी हम ही दे रहे हैं
बड़ी महंगाई है का बेसुरा राग भी गा रहे हैं।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921