हमने साथ बिताई है
तुम ही जानो कितनी सांसें,
हमने साथ बिताई है ।
जीवन की तपती दुपहरिया ,
देहरी संग छुपाई है।
बदरा बरसे छम-छम-छम ,
बिजली से आँख चुराई है।
पूस की जाड़ा बदन कंपाए ,
गुदड़ी से जान बचाई है।
फागुन मास की फगुनाई में
संग – संग टहल लगाई है।
तुम ही जानो कितनी सांसें ,
हमने साथ बिताई है।
अंग – अंग बदरंग हुआ अब ,
घुटनों तक हमें सताई है।
हम सब के कजरारे नयना ,
चश्मे में मुंह छुपाई है।
मुस्काने प्यारी होठों की ,
अब बिना दंत शर्माई है।
तुमसे नहीं शिकायत सजनी ,
तू ही जीवन भरपाई है।
तेरे स्नेह के मरहम से हमने,
दर्दों से मुक्ति पाई है ।
दोनों की अब जर्जर काया ,
पर ,प्यार नहीं मुरझाई है।
पार लगा देना हे प्रभु तुम ,
संग सजनी परझाई है।
तुम ही जानो कितनी सांसें ,
हमने साथ बिताई है।
— शिवनन्दन सिंह