कविता

हमने साथ बिताई है

तुम ही जानो कितनी सांसें,
हमने  साथ  बिताई   है ।
जीवन की तपती दुपहरिया ,
देहरी  संग  छुपाई  है।
बदरा  बरसे  छम-छम-छम ,
बिजली से  आँख चुराई है।
पूस की जाड़ा बदन कंपाए ,
गुदड़ी से जान बचाई है।
फागुन मास की फगुनाई में
संग – संग टहल लगाई है।
तुम ही जानो कितनी सांसें ,
हमने  साथ   बिताई  है।
अंग – अंग बदरंग हुआ अब ,
घुटनों तक हमें सताई है।
हम सब के कजरारे नयना ,
चश्मे में मुंह छुपाई है।
मुस्काने प्यारी होठों की ,
अब बिना दंत शर्माई  है।
तुमसे नहीं शिकायत सजनी ,
तू  ही  जीवन भरपाई  है।
तेरे स्नेह के  मरहम से हमने,
दर्दों  से  मुक्ति  पाई   है ।
दोनों की अब जर्जर काया ,
पर ,प्यार नहीं मुरझाई है।
पार लगा देना हे प्रभु तुम ,
संग सजनी परझाई है।
तुम ही जानो कितनी सांसें ,
हमने  साथ  बिताई  है।
—  शिवनन्दन सिंह

शिवनन्दन सिंह

साधुडेरा बिरसानगर जमशेदपुर झारख्णड। मो- 9279389968