सामाजिक

आत्ममंथन करना होगा

हम सभी मानव हैं और आत्ममंथन हमारे जीवन का अहम हिस्सा है।यह अलग बात है कि हम अपनी सुविधा अनुसार ही आत्ममंथन करने के बारे में सोचते या करते हैं।जीवन के हर हिस्से में समय समय पर आत्ममंथन करना हमारे हित में है। जिसकी उपेक्षा हमें भारी पड़ सकती है और पड़ती भी है।
साहित्य के क्षेत्र में भी हम सबको आत्ममंथन करना होगा कि आज सोशल मीडिया के बढ़ते दायरे के साथ साहित्यिक क्षेत्र में कदम रखने वालों की प्रतिदिन बढ़ती असीमित संख्या का परिणाम कितना सार्थक और सारगर्भित है।

नित नये अवतरित होते आभासी पटलों ने साहित्यकारों, कलमकारों को निश्चित रूप से मंच और सृजन पथ पर आगे बढ़ाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और निभा रहें हैं। जिसका परिणाम यह है कि बहुत से अच्छे रचनाकार प्रकाश में आ सके, तो कुछ विलक्षण प्रतिभाएं भी अपनी सृजन यात्रा को विशिष्ट बना रही हैं। लेकिन इसका दुष्परिणाम यह भी है कि संस्थापक बनने के मोह में जाने कितने मंच/पटल अधकचरे ज्ञान वाले कथित साहित्यकार संचालित कर रहे हैं, तो कुछ काफी योग्य भी। लेकिन लेखन प्रतियोगिता के नाम पर नये विषयों की आपाधापी में बिना स्तरीय रचना के भी सबको सम्मान पत्र देने की संस्कृति के चक्कर में कुछ भी लिख कर सम्मान पत्र पाने का मोह और मात्र प्रतिभाग करने भर से सम्मान पत्र देने की प्रवृत्ति से स्तरीय लेखन प्रभावित हो रहा है। इसके पीछे दोनों तरफ लालच है एक तरफ संख्या बल का तो दूसरे सम्मान पत्रों के संख्या बल का। ऊपर से पटलों पर दिए विषय पर आई रचनाओं की समीक्षा महज औपचारिक ही होकर रह जाती है। बहुत अच्छा, सुंदर, वाह, लाजवाब, गजब और स्टीकर कमेंट के द्वारा दी गई प्रतिक्रिया का आशय समझ से परे है।
इसका एक और दुखद पहलू है कि भागमभाग और स्वयं को श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति का दुष्परिणाम यह है कि यदि किसी ने कभी इस ओर ध्यान दिलाया भी है तो सामने वाला अभद्र व्यवहार करने पर उतारू हो जाता है, बहुत बार गाली गलौज पर उतर आता है।ऐसी भी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल जाती कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई कमी निकालने की, बड़े बुद्धिमान बनते हो, मुझे तुमसे ज्यादा जानकारी है आदि आदि। इस कारण भी लोग सटीक प्रतिक्रिया से बचते हैं जिसका नुकसान उन कलमकारों को होता है जो वास्तव में सीखने की लालसा रखते हैं। क्योंकि एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है। भले ही ऐसे लोगों की संख्या गिनी चुनी हो, लेकिन भुगतना अधिसंख्य को पड़ता है।
विशिष्ट नामों से सम्मानित करने की होड़ में भी साहित्य का नुक़सान हो रहा काव्य रत्न, साहित्य गौरव, साहित्य रत्न, काव्य भूषण, अनेक पुरोधा साहित्यिकारों के नाम का सम्मान पत्र आदि साहित्य और साहित्यकारों के साथ मजाक हो रहा है। अब तो बहुत से पटल समय समय पर उपाधियां भी देने में आगे बढ़ ये जा रहें। उन्हें पात्र-अपात्र से कोई मतलब नहीं है। सही बात तो यह है कि उन्हें इतनी समझ ही नहीं है।
विद्या वाचस्पति सम्मान भी खुले आम बेचने का फैशन विभिन्न संस्थाएं, संगठन बनाते जा रहे हैं, जिसके सहारे अपने नाम के आगे डा. लिखना फैशन बनता जा रहा है।
साहित्यिक आयोजनों/ सम्मान समारोहों की आड़ में पैसे लेकर सम्मान देने का व्यवसायिक प्रचलन भी खूब फल फूल रहा है। लोग टूट भी औंधे मुंह गिरे पड रहे है, तो आयोजक भला मौका दोनों हाथों से लड्डू भला क्यों न फोड़ेगा ? गैर साहित्यिक व्यक्ति भी साहित्यिक सम्मान खरीद रहे हैं। इससे साहित्य और साहित्यकार का क्या भला होगा? यह भी गहन आत्म मंथन का विषय है।
नई पीढ़ी के अधिसंख्य रचनाकार पढ़ने की प्रवृत्ति नहीं पैदा कर पा रहे हैं, वे सिर्फ लिखना चाहते हैं, साथ ही यह भी कि लोग उन्हें पढ़ें, वे भले ही किसी को न पढ़ते हों।
ई बुक और ई साझा संकलनों का स्तर भी रामभरोसे ही है। सहयोग के आधार पर छपास संस्कृति से भी स्तर गिरता जा रहा है। न कोई संपादन, न सुधार,न अस्वीकृत। पैसा दिया है मतलब कुछ भी छपने की गारंटी। पत्र पत्रिकाओं में भी रचनाओं का चयन न के बराबर रह गया। अपवाद स्वरूप पत्र पत्रिकाएं ही कसौटी पर खरी उतरती रचनाओं का प्रकाशन कर रहे हैं।
अनेकानेक प्रकाशन अपनी शर्तो पर संग्रहों का प्रकाशन कर रहे हैं और लोग करा रहे हैं, अनेक साधन संपन्न साहित्यकार अपनी पुस्तकें आसानी से धन खर्च कर छपा लेते हैं, जो उनके घरों की अलमारियों और विभिन्न बिक्री प्लेट फार्मों की शोभा मात्र बढ़ा रहे हैं। एक भी पुस्तक कोई नहीं खरीदता या पढ़ता है, क्योंकि उसमें पढ़ने लायक सामग्री ही नहीं होती। बस मुफ्त में अपने लोगों में बांट कर आत्म संतुष्टि प्राप्त करने की ललक भर है। दूसरे उन रचनाकारों के संग्रह धनाभाव में प्रकाशित नहीं हो पाते जिन्हें वास्तव में लोगों के बीच आना ही चाहिए था।
वरिष्ठ साहित्यकारों का सम्मान और उनका सान्निध्य और सीख पाने की ललक गुम होती जा रही है। अनेकों वरिष्ठ साहित्यकार कुछ देना भी चाहते हैं तो विडंबना देखिए लेने वाले गिने चुने हैं। आज तकनीकी युग के कलमकार कापी पेन वाले साहित्यकारों को हेय दृष्टि से देख रहे हैं। साहित्य में भी गुरु शिष्य परंपरा का लोप होता जा रहा है। विडंबनाओं की भरमार होती जा रही है। साहित्य साधना कम शौक ज्यादा होता जा रहा है।
सरकारी सम्मानों को भी जुगाड़ और भाई भतीजावाद पलीता लगा रहा है। दो कौड़ी की बहुत सी पुस्तकें सम्मान पाकर भावविभोर हो रही हैं और पात्र पुस्तकें धूल खाती लालफीताशाही का शिकार हो आँसू बहाकर रह जाती हैं।
साहित्यिक क्षेत्र में कदम कदम पर और साहित्य से जुड़े हर व्यक्ति को आत्ममंथन करने की जरूरत है कि क्या हम अपने दायित्व निभा रहे हैं? हम वास्तव में साहित्य की सेवा, साधना कर रहे हैं। हमारी जिम्मेदारी क्या है और हम वास्तव में अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं।
नये रचनाकारों में सीखने की ललक जागृति होना आवश्यक है, गुरु शिष्य परंपरा को जीवित रखकर ही साहित्यिक क्षेत्र में हम अपने को प्रकाशित कर सकते हैं।
सम्मान का लोभ छोड़ कर अपने सृजन को प्रभावी बनाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। साहित्य जगत से जुड़े लेखक कवि साहित्यकार,समीक्षक,आलोचक , साहित्यिक संस्थाओं के प्रबंधकीय पदाधिकारी, संपादक प्रकाशक के साथ पाठकों को भी आत्ममंथन करना होगा कि क्या वास्तव में हम अपने उत्तर दायित्व का ईमानदारी से निर्वाह कर रहे हैं या महज नाम, धन के लालच में मुँह बाये साहित्य के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं। तभी साहित्य अपनी गरिमा के साथ गौरवान्वित महसूस कर सकेगा।

*सुधीर श्रीवास्तव

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