कहीं नहीं
सुकुन तलाशते सड़कों पे फिरते हैं लोग सभी
खुशियों को समझते है बाजार में मिलती है कहीं !
बचपन खोया है मोबाइल के मायाजाल में
अब बच्चों का भोलापन दिखता नहीं कहीं !
माता पिता की परवाह कहीं रही नहीं
अक्सर वो मिल जाते हैं वृद्धा आश्रम में कहीं !
आधुनिकता के होड़ में शामिल हर कोई
संस्कारों को यहां मानता कोई नहीं !
सड़कों पर भीड़ बढ़ती ही जाती दिन-ब-दिन
फिर भी इंसान अकेलेपन से जूझता है हर कहीं !
हर कोई शामिल है भौतिकता की दौड़ में
सुख-शांति की तलाश कहीं दिखती नहीं !
क्या पाएगा मानव ऐसी होड़ से
जिसमें मानवता कहीं दिखती नहीं !
— विभा कुमारी “नीरजा”