गीतिका/ग़ज़ल

कहीं नहीं

सुकुन तलाशते सड़कों पे फिरते हैं लोग सभी 

खुशियों को समझते है बाजार में मिलती है कहीं !

बचपन खोया है मोबाइल के मायाजाल में

अब बच्चों का भोलापन दिखता नहीं कहीं !

माता पिता की परवाह कहीं रही नहीं

अक्सर वो मिल जाते हैं वृद्धा आश्रम में कहीं !

आधुनिकता के होड़ में शामिल हर कोई

संस्कारों को यहां मानता कोई नहीं !

सड़कों पर भीड़ बढ़ती ही जाती दिन-ब-दिन

फिर भी इंसान अकेलेपन से जूझता है हर कहीं !

 हर कोई शामिल है भौतिकता की दौड़ में

सुख-शांति की तलाश कहीं दिखती नहीं !

क्या पाएगा मानव ऐसी होड़ से

जिसमें मानवता कहीं दिखती नहीं !

—  विभा कुमारी “नीरजा”

*विभा कुमारी 'नीरजा'

शिक्षा-हिन्दी में एम ए रुचि-पेन्टिग एवम् पाक-कला वतर्मान निवास-#४७६सेक्टर १५a नोएडा U.P