गीत – शेष न रहती एक
जितने साँचे उतनी प्रतिमा
शेष न रहती एक।
कुंभकार है अद्भुत सृष्टा
साँचे गढ़े नवीन।
माटी भर -भर बना रहा है
लघु,पतली या पीन।।
ढाली प्रतिमा साँचे तोड़े
प्रतिपल बनी अनेक।
मौलिकता में भिन्न -भिन्न सब
रंग रूप आकार।
साँचा केवल एक बनाया
राम कृष्ण-अवतार।।
दसकंधर या कंस, कृष्ण अरि
गए बने बस भेक।
गर्भ -अवा की आग तपाया
दे नर- नारी रूप।
उधर तोड़कर फेंका साँचा
आया तू भव -कूप।।
जैसा ढाला बाहर आया
तेरा वृथा विवेक।
बना न कोई सदृश रूप में
एक कहीं प्रतिरूप।
मिला न करतीं रेखा कर की
प्रत्यावर्तन भूप।।
जल,थल,नभचर सभी भिन्न हैं
बाँधी ऐसी टेक।
चमत्कार है यह कर्ता का
नहीं नकल का काम।
नित नवीनता लाया भव में
ब्रह्मा उसका नाम।।
‘शुभम्’एक ही बना धरा पर
काम किया प्रभु नेक।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’