धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

याचक कौन?

याचक का शाब्दिक एवं वास्तविक अर्थ है मांगने वाला अथवा भिखारी। जो कहीं भी, किसी भी समय कुछ-न-कुछ मांगता ही रहता है। चाहे घर-परिवार हो, समाज हो, राष्ट्र हो और तो और मांगने में तो उसने ईश्वर को भी नहीं छोड़ा। वह अपनी वाणी से या चेहरे के हाव-भाव से ऐसा महसूस करा देता है कि सामने वाला किसी-न-किसी प्रकार से उसकी मदद अथवा सहायता अवश्य करें। आज के दौर में याचकों की कोई कमी नहीं है। झौपड़ी में, घरों में, महलों में, बंगलों में एवं आलीशान कोठियों में प्रायः सभी स्थानों पर याचक-ही-याचक नजर आते है। कोई पुत्र की, कोई पद की, कोई पैसे की, कोई संघ-समाज में ऊँचे पद की याचना अक्सर करता ही रहता है। किसी-किसी को तो सुन्दर एवं संस्कारी पत्नी चाहिये तो किसी को अच्छी नौकरी व उसमें भी ऊँची पोस्ट चाहिये। दुनिया में बहुत कम लोग ऐसे होंगे जिनके मन में किसी भी तरह का भिखारीपना न छिपा हो। इसे हम निम्न बिन्दुओं से भी समझ सकते हैंः-

कुछ ऐसे विरले व्यक्ति होते है जो विशिष्ट प्रज्ञा, प्रतिभा, पुण्यवानी एवं कर्तत्व शक्ति से सम्पन्न होते है। अपनी योग्यताओं के बल पर वे ऐसे-ऐसे कार्य कर लेते है जिन्हें देखकर दुनिया दांतों तले उंगली दबा लेती है। उनकी क्षमता, प्रज्ञा एवं प्रतिभा का लोहा सम्पूर्ण संसार मानता है। उन्हें कभी भी अपने सम्मान एवं सत्कार की अपेक्षा नहीं रहती है। ऐसे विशेष व्यक्तियों को समाज स्वयं अपनी पलकों पर बिठा लेता है। गले का हार व सिर का मुकुट बना लेता है। वे जहाँ भी जाते हैं, वहाँ सत्कार एवं सम्मान ही पाते हैं। दुनिया उनके मस्तिष्क पर तिलक करने को बेसब्र रहती है। माला के फूल भी उनके गले में स्थान पाकर अपने आपको गौरवान्वित समझते हैं। चारों दिशाओं में उनका यश फैलता ही जाता है। जैसे कि हमारे देश के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी जी।

कुछ व्यक्ति ऐसे होते है जिनमें सामान्य प्रतिभा, बल, बुद्धि, कौशल तो होता है। परन्तु उन्हें कोई विशेष आदर-सत्कार नहीं मिलता। ऐसे व्यक्ति को यदि कुछ सम्मान मिल भी जाता है तो वे उसे पाकर फूल जाते है। जैसे-जैसे उनका मान-सम्मान बढ़ता जाता है तो उनमें उसे और पाने की भूख भी तीव्र गति से बढ़ती ही जाती है। परन्तु उनमें एक ही कमी होती है कि जो सम्मान उन्हें प्राप्त हो रहा है उसे वे पचा पाने में असमर्थ है अर्थात् उस मिले हुए सम्मान को पचाने की क्षमता उनकी बहुत कम होती है।

इसमें वे व्यक्ति आते हैं, जिनमें योग्यता तो कुछ भी विशेष नहीं होती, परन्तु उनकी हमेशा से यही कामना रहती है कि उनका नाम, यश, गौरव, उच्चा पद, प्रतिष्ठा उन्हें मिलती रहनी चाहिए । वे अपने नाम के आगे उपमाओं के ढ़ेरों अलंकार चाहते है। उनमें से कोई एक भी जब उन्हें मिल जाता है तो उनके पैर धरती पर नहीं टिकते। और तो और अपने स्वयं की प्रशंसा का अम्बार वे खुद ही लगाते रहते है। वे उन उपमाओं को एक रत्न एवं स्वर्ण जड़ित हार की तरह सदैव अपने सीने से चिपका कर रखते है। उन्हें जितना अधिक मान-सम्मान मिलता जाता है उतना उनका अंहकार भी बढ़ता जाता है। अंहकार एक तरह का अजीर्ण (अपच्य) है। इसलिए जो मनुष्य धीर-वीर-गम्भीर होता है वह इस अजीर्ण से सदैव मुक्त रहता है।

कुछ व्यक्ति ऐसे होते है जो बहुत प्रतिभाशाली होते हैं। जो सम्मान, उपाधियाँ, स्वर्ण एवं हीरक पदक मिलने पर भी नहीं छलकते हैं। अभिमान से उनका सीना कभी नहीं फूलता। वे उपमाओं को एक प्रकार से व्याधि (दुःख/कष्ट) समझते है। वे कभी भी आदर-सत्कार, मान-सम्मान, उपमा, उपाधि, पद-प्रतिष्ठा आदि के पीछे पागल नहीं होते। यह सब तो उनके न चाहने और न मांगने पर भी उन्हें मिल जाता है। जिन व्यक्तियों को अपने नाम, पद, प्रतिष्ठा आदि की कामना मन में नहीं होती उन्हें समाज में वैसे ही बहुत आदर-सत्कार और सम्मान मिलता है।

याचकपना तो हमारे मन की एक धारणा हैं। इसके कहे ही हम दूसरों से अपेक्षा करते रहते हैं कि वे हमारी सहायता एवं आदर-सम्मान करें। मन तो एक बहुरुपियाँ हैं। बहुरुपियाँ का अर्थ है कि शरीर एक एवं उसके रूप अनेक। वह कभी तो भिखारी बनता है तो कभी बड़ा साहुकार बन जाता है। कभी दातार तो कभी लोलुप (लालची) बन जाता है। कभी मीरा बनकर कृष्ण की भक्ति में लीन हो जाता है तो कभी मंथरा बनकर दूसरों के जीवन में आग लगाने के नये-नये तरीके ढूँढता रहता है। हमें हमारे भीतर छिपे हुए उस मन को पहचानना है। उसके भीतर छुपे भिन्न-भिन्न रूपों को जानना है। उनमें से जो भी रूप हमारी आत्मा पर बार-बार प्रहार करते हैं, हमारे भीतर कषाय, क्रोध, मान, माया एवं लोभ को बढ़ाते है हमें उन्हें हमारे जीवन से निकाल फेंकना है। हमें आत्म-प्रशंसा तो करनी ही नहीं है लेकिन पर-प्रशंसा में भी विवेक रखना है। हमें विवेकपूर्वक अपने मन की पाचन क्षमता को बढ़ाना है। तभी सही मायनें में हम हमारे भीतर छुपे उस बहुरुपिये (मन) पर विजय प्राप्त कर उसके याचकपना (मांगने) की प्रवृत्ति को अपने जीवन से दूर करना है।

— राजीव नेपालिया (माथुर)

राजीव नेपालिया

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