हार की चाहत लिये, विहार की सरकार हैं
महफिलों का यहां पर, हाल मैं खूब जानता हूं
भीड़ की न शक्ल कोई, हाल मैं खूब जानता हूं
हर तरफ अंजान हैं, बस अजनबी के मेले हैं
अपनी जानिब देख कर, हाल मैं खूब जानता हूं
धुंध है और शोर है, कदमों में आपाधापी है
कौन किसका है यहां, हाल मैं खूब जानता हूं
आंधी और तूफान से, हाथ, दो दो हो चुके
उड़ती खाक का यहां, हाल मैं खूब जानता हूं
हार की चाहत लिये, विहार की सरकार हैं
कैसे पलट जाते हैं सब, हाल मैं खूब जानता हूं
विपदा बड़ी झेले हैं, कठिनाई से खेले यहां
इस ‘‘राज’’ काज का, हाल मैं खूब जानता हूं
— राजकुमार तिवारी ’’राज‘‘