गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

कुछ मैं रखूंगा, तुम रखोगे कुछ संभाल कर,
रक्खी है छत पे धूप में यादें निकाल कर।

हक में हमारे ये कभी गिरता नहीं मगर,
देखा है वैसे रोज़ ही सिक्का उछाल कर।

मांँ , बाप के लिये नहीं घर में जगह मगर,
बेटे ने वहाँ रक्खा है कुत्ते को पाल कर।

जंगल, हवा, पानी, नदी, आकाश प्रदूषित,
इंसान ये गलती तेरी, कुछ तो मलाल कर।

कब तक रहेगा मौन, तू सत्ता के सामने,
हक के लिये अपने कभी तो बोलचाल कर।

काँटें बिछा रखे हैं रकीबों ने हर कदम,
घर से निकलना ‘जय’ मेरे अब देखभाल कर

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से