कहानी

मायका है मेरा

हर बार पापा तनख्वाह लाकर छोटी को दे देते और कहते जाओ भगवान जी को छुआकर प्रणाम कर लेना। वो दौड़ी-दौड़ी जाती भगवान जी की मुर्ति को स्पर्श करा सौ का नोट निकाल लेती। हर महीने की यही कहानी थी। मुझे कभी ध्यान ही नहीं आया ,पापा मुझे भी तो दे सकते थे। छोटी जबतक छोटी थी तबतक दुलार-प्यार में सब ठीक था।मेरा इसपर कोई संदेह करना उचित कहाँ था,यहाँ तक कि सोंचना भी गलत था। बड़ी जो थी। 

“बड़े जो होते है वो रोते नहीं-बिलखते नहीं कभी ,उन्हें संतोष करना चाहिए। बड़े होने का बड़प्पन दिखाना चाहिए।” अक्सर ये बातें घर में होती तो मेरा इसपर सोंचना भी पाप था। सब मेरे ही तो थे माँ-बाप,भाई-बहन सब! कोई तो एक घर का बागडोर संभालेगा,वो छोटी के भाग्य में आया। धीरे-धीरे छोटी के भीतर शासक का जन्म होने लगा। अब वह बचपन के खोल से बाहर आ रही थी।  पैसों को पहचानने लगी,जानने लगी।वात्सल्य के अधिकार के साथ-साथ बुद्धिमता भी अपना अधिकार दिखा रही थी। मैं जाने क्यूँ झिझकती रही,अपना ही अधिकार मुझे अपराध क्यूँ लगता था। छोटी बड़ी होती गई और मैं दबती गई ये कहकर कि तुम उतनी तेज-तर्रार नहीं हो। वाकई छोटी तेज-तर्रार थी सब उसके इशारों पर नाचते। सबकी जरुरत वही तय करती मेरी भी।मुझे क्या चाहिए मुझे मालूम ही नहीं था।तन को खाना,कपड़ा मिल जाता बहुत था इससे ज्यादा की जरूरत ही नहीं थी। 

मेकअप,सजना-संवरना सब उसके लिए था क्यूँकि वह कागजी कामों के लिए बाहर निकलती थी। लोगों के बीच आकर्षण का बिंदु भी जरुरी होता है।सजे-धजे लोग ही लोगों को पसंद आते हैं। तमाम तरह की प्रसाधन अपने शरीर के लिए खरीदा करती। मैं उसके रहमो-करम पर रहा करती।मुझे जरुरत ही कहाँ थी,घर के काम मेरे हिस्से में थी। मुझे कुछ और आता ही कहाँ था। मैं अपने कक्षा की मेधावी ,छोटी मुश्किल से पास किया करती।दुनिया भी कहती है हर सफल व्यक्ति हमेशा पढ़ाई में फिसड्डी रहा है। मेरा मेधावी होना व्यर्थ था। दुनियादारी मुझसे नहीं संभलने वाली,चतुरता और कुटिलता दोनों से अनभिज्ञ रहकर आदमी जिंदा कैसे रह सकता है। इसलिए मुश्किल से मैं जिंदा थी। 

एक ही भाई हमारा लाडला,गलती कर दी प्रेम-विवाह करके,मानो एक कांटा साफ हो गया। दूसरी मैं थी बस विवाह होने भर की देर थी। मुझे विवाह में क्या लेना,क्या पसंद सब छोटी को मालूम था।मेरी बारात आयी और मैं सब सपने लिए बिदा हो गई।किसी को न कोई दुख,न कोई गम।बोझ ही थी उतर गई। 

भाई ने अपनी मर्जी से विवाह क्या किया ,छोटी ने चिंगारी को हवा दे दी।नयी-नवेली दुल्हन के साथ घर से बाहर निकाल दिया गया। अगर माँ का दुध पीया है तो वापस न आना ,फिर वापसी का कोई सवाल ही कहाँ था।माँ घुटकर रह गई। अब छोटी का शासन और हुकूम के हम सब गुलाम.. मेरा विवाह हो गया घर से नाता कम गया अब छोटी का पंजा नुकीला हो चला था। लालच का पेड़ बरगद बनकर खड़ा था। मैं तरस जाती मायका जाने को ,इजाजत भी नहीं थी। 

पतिदेव के लिए एकदम से अजूबा सा था सबकुछ,ऐसा तो कहीं नहीं देखा है.. जबरन एकबार मायके लांघने का प्रयास किया… पापा ने कहा! मुझे जिंदा रखना चाहती हो तो फिर कभी नहीं आना। पैर वापस मुड़ गये। छोटी मुस्कुरा रही थी। अपने प्रेमी संग घर बसा रही थी। कभी-कभी दिल और दिमाग की लड़ाई में पागल हो जाती हूँ,दुनिया कहती माँ-पिता भगवान है। यही मानकर चलती आई। उनके किसी फैसले पर अंगुली नहीं उठाया।बेटी मायके की खुशहाली चाहती है।

कभी-कभी अपवाद बहुत भयावह होता है।सच के करीब होकर भी अविश्वनीय लगता है।कैसे कर सकते हैं मेरे साथ ऐसा  ?????? पापा!आपका आदेश सर आँखों पर।कहकर अपनी दाँतेें भींच ली। सारे गम भीतर जज़्ब हो गये। गश्त खाते-खाते रह गई मैं, बड़ी होकर भी छोटी रह गई मैं….

— सपना चन्द्रा 

सपना चन्द्रा

जन्मतिथि--13 मार्च योग्यता--पर्यटन मे स्नातक रुचि--पठन-पाठन,लेखन पता-श्यामपुर रोड,कहलगाँव भागलपुर, बिहार - 813203