खुद को पढ़ रहा हूँ
मैं बन्द कमरे में खुद को पढ़ रहा हूँगा या कि
गर्मी की रात छत पर लेट
महसूस रहा हूँगा तपिश तुम्हारी
और ताक रहा हूँगा
तारों को
जिनमें तुम्हारे होने का
अहसास जिंदा हुआ होगा
मैं देख रहा हूँगा उन अनगिनत तारों में
एक खास किस्म के तारे को
या कि पैटर्न किसी तारा मण्ड़ल का
तेरे जिंदा रहने के ख्याल
आज भी जिंदा हैं मुझमें
महसूस होता है के
एक लम्बी दूरी भी हमारे
इश्क के दरम्यान
बंधन पैदा नहीं करती
तुम्हारा वजूद ठीक वैसा ही है
जैसा अमलतास पर केसर की कल्पना
हाँ! ये सच है तुम दूर ही सही
पर हो कहीं मेरे इर्द गिर्द
होने के अहसास से भरपूर
वो लोग सबूत माँगते हैं
तुम्हारे होने या कि न होने का
मेरे जज्बातों से हो बेखबर
और मैं बन्द कमरे में
खुद को पढ़ रहा हूँ।
— संदीप तोमर