लघुकथा

गम और खुशी

एक घर में गम बहुत दिनों से डेरा जमाये बैठा था.  निकलने का नाम ही नही ले रहा था और उसी घर के बाहर बहुत दिनों से खुशी खड़ी थी, यह सोचकर कि कब गम बाहर आये और वह घर के अंदर चली जाय.  अब गम भी बहुत दिनों बैठा उकता गया और उस घर से निकलने लगा.   दरवाजे पर ही खुशी मिली और इतरा कर गम से बोली ” आखिर उकता गये ना इस घर में बैठे बैठे,आखिर उकताते कैसे नही घर में  तुम्हें सब कोस रहे होंगें,अब जाती हूँ घर के अंदर देखना  ,मुझे इस घर के लोग सर आंखों पर बैठा लेंगे तुम्हें कोई चाहता ही नहीं”

              गम बोला”अरे खुशी, इतना मत इतरा तू उसी जगह पर जा सकती हैजिस जगह को मैं तेरे लिए खाली कर देता हूँ,तू भी कब से खड़ी थी दरवाजे पर मुझे भी तुझ पर तरस आ गया और मैने ये घर छोड़ दिया मैं अपनी जगह ना छोड़ू तो तुझे कहीं जगह मिल ही नहीं सकती   , जा अब तू रह ले इस घर पर मेरे निकल जाने के बाद तू कहीं जाती है ना तो ही लोग तेरी किमत समझते है वरना तेरी भी कोई किमत नहीं समझी और तू भी तो टिकती नही एक जगह मेरे पिछे पिछे घूमती रहती है.”  गम की बातों का खुशी के पास कोई जवाब नही था वह झट से घर के अंदर चली गयी.

 — अमृता राजेन्द्र प्रसाद

अमृता जोशी

जगदलपुर. छत्तीसगढ़