कविता

न्याय या तारीख

बूढ़ा बोला पोते से जरा मेरे पास आओ,
क्या हो रहा है जग में मुझे भी सुनाओ,
बोला मगरू लड़ रहा था मस्त था जब काया,
हो चुका बूढ़ा अब वो फैसला जब आया,
जाता था हर महीने इंसाफ की आस में,
संविधान व कानून दौड़ता था उसके विश्वास में,
हर बार उनको मिलता रहा एक तारीख,
लगता ऐसा दे रहा जज माहवार उनको भीख,
था मोटा आसामी लड़ने को उनके सामने,
पस्त करता रहा सदा वकील के काम ने,
सदा लेता फीस अपनी और बोलता प्यार से,
आ जाये अंतिम निर्णय शायद सोमवार से,
देता लोकतंत्र की दुहाई न पसीजता था जज,
वादी चिंता में पड़ा रहता रहता वकील भी सहज,
लिया था हड़प जमीन कर कर के अत्याचार,
था पैसे का घमंड और लोग भी थे पूरे चार,
भूल गया था क्यों मगरू बदल गया है संसार,
रह गया दुनिया में बस झूठ ईर्ष्या का व्यापार,
खोयी जमीन आधी और मिल पाया सिर्फ आधा,
तीस सालों की तपस्या था इंसाफ का तकाजा,
न्यायदाता के लिए शायद देता फैसला मजा,
फैसले का लंबा समय दोनों पक्षों को है सजा।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554