महर्षि दयानन्द की प्रमाणित जन्म तिथि
ओ३म्
महर्षि दयानन्द ने पहले पूना प्रवचन और बाद में थ्योसोफिकल सोसायटी के लिए अपना संक्षिप्त आत्मकथन लिखते हुए, इन दो अवसरों पर न तो अपने जन्म स्थान को ही पूरी तरह से सूचित किया और न हि जन्म के मास व तिथि का उल्लेख किया। अतः उनके सुविज्ञ अनुयायियों पर यह दायित्व आ गया कि वह अनुसंधान कर उनके जन्म की यथार्थ तिथि की खोज करें। महर्षि दयानन्द के बाद उनके जीवन चरित्र की खोज के लिए जिन प्रमुख लोगों ने कार्य किया उनमें प्रमुख रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी और पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय हैं। पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी को स्वामी दयानन्द जी के जन्म स्थान ‘‘टंकारा–राजकोट” की खोज करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ परन्तु प्रमाणित जन्म तिथि अर्थात् जन्म के मास व तिथि को यह दोनों ही महापुरुष भली प्रकार से सुलझा न सके। इस कारण आर्यसमाज में दो या तीन जन्म तिथियां प्रचलित हो गई थीं जिसका बाद में विद्वानों ने समाधान किया। ऋषि की जन्म तिथि विषयक कुछ संकेत महर्षि दयानन्द के पूना प्रवचन व आत्मकथा में उपलब्ध होते हैं। इसके साथ ही उनके जन्मकाल के नक्षत्र आधारित नाम ‘मूलशंकर’ व नक्षत्र ‘मूल’ की सहायता से आर्य विद्वानों ने उनकी यथार्थ जन्म तिथि ज्ञात कर ली है। इस विषय में समस्त जानकारी प्रसिद्ध वैदिक विद्वान डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री जी की पुस्तक ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती की प्रमाणित जन्म–तिथि’ पुस्तक में उपलब्ध होती है।
जन्म तिथि विषयक प्रमुख संकेत महर्षि दयानन्द ने अपनी संक्षिप्त आत्मकथा में किया है जो उन्होंने थ्योसोफ़िकल सोसायटी द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका के निवेदन करने पर लिखी थी। वह लिखते हैं कि संवत् 1881 के वर्ष में दक्षिण गुजरात प्रांत, देश काठियावाड़ के मजोकठा देश, मोर्वी का राज्य, औदीच्य ब्राह्मण के घर में मेरा जन्म हुआ था। यह संवत् उत्तर भारतीय संवत् है जो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर चैत्र कृष्ण अमावस्या को समाप्त होता है। सवंत् 1881 का अर्थ है सन् 1824-1825। अब मास व तिथि के लिये प्रयास करना है। इसका संकेत स्वामी दयानन्द जी के अपनी आत्मकथा में लिखे इस विवरण से मिलता है कि ‘इस प्रकार चौदह वर्ष की अवस्था के आरम्भ तक यजुर्वेद की संहिता सम्पूर्ण, और कुछ–कुछ अन्य वेदों का भी पाठ पूरा हो गया था। और शब्द–रूपावली आदि छोटे–छोटे व्याकरण के ग्रन्थ भी पूरे हो गये थे। मेरे पिता जी ने इस वर्ष मुझे शिवरात्रि के व्रत रखने को कहा, परन्तु मैं उद्यत न हुआ। जब शिवरात्रि आई, तब (पिता ने) 13 त्रयोदशी के दिन कथा का माहात्म्य सुनाके शिवरात्रि के व्रत करने का निश्चय करा दिया था। वह कथा मुझे बहुत प्रीतिकर लगी। तभी मैंने उपवास का दृढ़़ निश्चय कर लिया।’ इस संकेत से यह स्पष्ट आभास होता है कि चौदहवे वर्ष के आरम्भ में स्वामी दयानन्द जी ने शिवरात्रि के व्रत का निश्चय कर उसे किया। इस दिन घटी ‘चूहे व शिवलिंग’ की घटना से सभी बन्धु सुपरिचित है। इस उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि शिवरात्रि के व्रत से कुछ दिन पूर्व ही, अर्थात् फाल्गुन कृष्ण पक्ष में किसी दिन स्वामी दयानन्द ही का जन्म हुआ था और जब उन्होंने व्रत किया तब उनकी वय का चौदहवाँ वर्ष आरम्भ हो चुका था। भारतीय कालगणना के अनुसार शिवरात्रि प्रत्येक वर्ष फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की चतुदर्शी को मनाई जाती है। इसका अर्थ है कि सन् 1881+13=1894 की शिवरात्रि से कुछ दिन पूर्व ही स्वामी जी का चौदहवाँ जन्म दिवस था।
स्वामी दयानन्द जी ने अपनी आत्मकथा में अपनी जन्मतिथि विषयक दूसरा संकेत तब किया जब वह अपनी वय के 21 वें वर्ष की समाप्ती से कुछ ही दिन पूर्व, तीन कोस की दूरी पर अध्ययन कर रहे स्थान से, माता-पिता के द्वारा विवाह के लिये बुलाये जाने पर घर आये थे। वह लिखते हैं कि ‘फिर तीन कोस पर एक ग्राम में अपनी जमींदारी थी, वहां एक अच्छा पण्डित था। माता-पिता की आज्ञा लेकर उस पण्डित के पास जाके पढ़ने का आरम्भ कर दिया और वहां के लोगों से भी कहा कि मैं गृहस्थाश्रम करना नहीं चाहता। फिर माता-पिता ने (वहां पण्डितजी के पास से) बुला के विवाह की तैयारी करी। तब तक 21 इक्कीसवां वर्ष पूरा हो गया था। मेरे मन में तो घर छोड़कर निकल जाने की थी, परन्तु ऐसी सम्मति कोई न देता था। जो सम्मति देता, वह लग्न (विवाह) करने की ही देता। उस समय मैंने निश्चित जाना कि अब विवाह किये बिना यह लोग मुझे कदाचित् न छोड़ेंगे। और न अब मुझे भविष्य में विद्योपार्जन की आज्ञा मिलेगी और न माता-पिता मेरे ब्रह्मचारी रहने पर प्रसन्न होंगे। तब मैंने अपने मन में सोच-विचार कर यह निश्चय ठाना कि अब वह काम करना चाहिये, जिससे जन्म भर को इस विवाह के बखेड़े से बचूं। यह निश्चय मैंने किसी पर प्रकट न किया। एक मास में विवाह की तैयारी भी हो गई। फिर गुपचुप संवत् 1903 के वर्ष में शौच के बहाने एक धोती साथ लेकर घर छोड़ के शाम के समय भाग उठा और सिपाई द्वारा कहला भेजा कि एक मित्र के घर गया हूं।” इस विवरण से यह ज्ञात होता है कि माता-पिता की आज्ञा से जब स्वामीजी घर पर आये, तब उनके विवाह की तैयारी आरम्भ हुई जिसमें एक माह का समय लगा। इसी बीच उनकी वय का इक्कीसवां वर्ष पूरा हो चुका था। इस तैयारी की समाप्ती के कुछ ही दिन बाद (चैत्र शुक्ल पक्ष में) स्वामी जी घर से भागे और उस समय सम्वत् 1903 आरम्भ हो चुका था। यह सम्वत् 1903 का वर्ष उनकी आयु का बाईसवां वर्ष था। इस तथ्य से भी यह सिद्ध है कि स्वामीजी का जन्म चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लगभग एक माह व कुछ दिन पूर्व फाल्गुन मास में और वह भी फाल्गुन की कृष्ण चतुर्दशी अर्थात् शिवरात्रि से कुछ दिन व समय पूर्व हुआ था।
अब स्वामीजी के जन्म का वर्ष सम्वत् 1881 व मास फाल्गुन कृष्ण पक्ष का ज्ञान हो गया है, मात्र तिथि को जानना शेष है। इसके लिए उनका नक्षत्र नाम पर आधारित बाल्यावस्था का नाम ‘मूलशंकर’ सहायक होता है। स्वामीजी के पूर्व आश्रम के नाम मूलशंकर और जन्म नक्षत्र के सम्बन्ध में उनके एक सुशिष्य महावैयाकरण पं. ज्वालादत्त शर्मा ने यह ललित-मन्दाक्रान्ता लिखी थी–
क्षोणीभाहीन्दुभिरयुते वैक्रमे वत्सरे यः, प्रादुर्भूतो द्विजवरकुले दक्षिणे देशवर्ये।
मूलेनासौ जननविषये शंकरेणापरेण, ख्यातिं प्रापत् प्रथमवयसि प्रीतिदां सज्जनानाम्।।
अर्थात् ‘‘स्वामी दयानन्द सरस्वती उत्तम देश दक्षिण में श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में सं. 1881 में प्रादुर्भूत हुए। उन्होंने जन्म कालिक नक्षण के कारण बाल्यावस्था में ‘मूलशंकर’ नाम पाया जो सत्पुरुषों को अतीव हर्ष प्रदान करने वाला है।”
इसका उल्लेख कर वैदिक आर्य विद्वान डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि संवत् 1881 के फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष में मूल नक्षत्र फाल्गुन बदि 10 तथा 11 को है। दशमी में वह अति स्वल्पकाल था तथा एकादशी में वह 5-7 घटिका था। इस प्रकार महर्षि का जन्म संवत् 1881 फाल्गुन बदि 11 एकादशी में हुआ था। पर व्यावहारिक सूर्योदय तिथि 1881 फाल्गुन बदि 10 दशमी शनिवार थी। ख्रीष्टाब्द 1825 ई. में 12 फरवरी की तारीख थी। अतः महर्षि की जन्म तिथि 1881 संवत् फाल्गुन मास कृष्णपक्ष 10 दशमी दिन शनिवार तदनुसार 1825 ई. की 12 फरवरी तारीख है।
महर्षि दयानन्द जी की जन्मतिथि निर्विवाद रूप से 12 फरवरी 1825 शनिवार अर्थात् फाल्गुन कृष्ण पक्ष दशमी संवत् 1881 है। सभी आर्यजनों को इसी तिथि का व्यवहार करना चाहिये। महर्षि दयानन्द के मोक्ष वा कैवल्य प्राप्ति की तिथि 30 अक्तूबर, 1883 है। इस प्रकार से उनका कुल जीवन काल 58 वर्ष 8 माह 18 दिन का होता है। यदि महर्षि दयानन्द को जोधपुर में षडयन्त्र के अन्तर्गत विष न दिया जाता तो वह और अधिक जीवित रहते और वैदिक धर्म और संस्कृति का प्रचार कर उसे अत्यधिक समृद्ध करते। आर्य हिन्दू जाति के लिए उनका निधन घोर दुःख व विपदा का सूचक है। महर्षि दयानन्द के प्रमुख उत्तराधिकारी विद्वान पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, महात्मा हंसराज, पं. शिवशंकर शर्मा ‘काव्यतीर्थ’ आदि थे। हमने यह लेख इतिहास संरक्षण एवं अनेक आर्यजनों की इस विषय की भ्रान्ति दूर करने के लिए लिखा है। आशा है कि इससे सभी आर्यजनों सहित जनसामान्य एवं विद्वान भी लाभान्वित होंगे।
–मनमोहन कुमार आर्य