गीतिका/ग़ज़ल

गजल

मुसीबत की घड़ी में टूट जाता हर सहारा है ।
हमारी उम्र कम है पर तजुर्बा ढेर सारा है

मेरी आँखों से छलके थे बड़े अनमोल आँसू थे
वजह जो सख्श था वो आज तक दिल से हमारा है ।

पलट कर देख ले आजा , वही बूढी हवेली है
बिछा कर आँख तकती है कहाँ मेरा दुलारा है ।

नहीं है आँख में ज्योति सहारे की जरूरत है
बुढ़ापे का सहारा था वो भी अल्ला का प्यारा है ।

उदासी का सबब ना पूछ मुहब्बत के बहाने से
चले है सैकड़ों नश्तर जख्म इकदम करारा है ।

धर्म ने सच कहा यारो उम्र तो चार दिन की है
करो अब खत्म हर तल्खी ये जीवन ही नकारा है

— धर्म पाण्डेय

2 thoughts on “गजल

  • विजय कुमार सिंघल

    एक और अच्छी ग़ज़ल !

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    उम्दा रचना

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