बेटी का पिता
मानों स्वर्ग उतरा आँगन में कितनी हुई बधाई थी,
फूले नहीं समाते पिता बिटिया जिस दिन आयी थी,
भाग्यशाली समझते खुद को घर में आयी सीता,
लेकिन वे अंजान थे मैं हूँ एक बेटी का पिता।
जिगर की टुकड़े से एक पल हटती नहीं निगाहें,
हर ख्वाहिश पूरा करते झूला थी उनकी बाहें,
बाग की इस कली को बड़े स्नेह-प्यार से सींचा,
लेकिन वे अंजान थे मैं हूँ एक बेटी का पिता।
बेटी की हर सफलता पर कितने वे इतराते,
हर जन्म ये मेरी बेटी बने यही अरमान सजाते,
सीना चौड़ा हो गया मेरी बिटिया ने मुझको जीता,
लेकिन वे अंजान थे मैं हूँ एक बेटी का पिता।
बेटी का रिश्ता लेकर जब गये लड़के के घर,
सहम गये देखकर लड़का के पिता का अकड़,
कभी न झुकनेवाले का सर आज था नीचा,
शायद समझ में आ गया था मैं हूँ बेटी का पिता।
दिल के टूकड़े को दान करते हैं दहेज के साथ,
क्यों आज नीचे होता है देनेवाले का हाथ,
ऐ समाज के प्रवर्तक कभी किया है ये समिक्षा,
किस पाप की सजा पाते हैं बेटी के पिता।
– दीपिका कुमारी दीप्ति