सिसक रहे हम छुप छुप कर।
सिसक रहे हम छुप छुप कर मगर तुम्हें कहें कैसे।
जो अभाव रहा उम्रभर वो सफ़र तुम्हें कहें कैसे।
तुम न समझोगे वो तन्हाई यादों की वो शहनाई;
अश्क आंखों में भर कर वो सहर तुम्हें कहें कैसे।
खफ़ा होकर चले जाना और फिर लौट के न आना;
तुम्हारी जुस्तजू रही सदा वो असर तुम्हें कहें कैसे।
खता जो की होती तो हम न दोष तुम्हें देते कभी;
बेताब कैफियत की फिर वो डगर तुम्हें कहें कैसे।
बहारें फिर आई हैं तो ऐ हमसफ़र कहो हमसे ये;
ग़ज़ल जो न हुई कभी पूरी वो बह्र तुम्हें कहें कैसे।
कामनी गुप्ता***
जम्मू !