अपना सलीब, अपना कंधा
पेशे से शिक्षक, परंतु स्वभाव से कवि आदित्य की कविता ‘बेचारगी’ पर मेरी टिप्पणी– “कविता ‘बेचारगी’ मार्मिक और उदास करनेवाली है। काफी दिनों के बाद बच्चन जी के ‘मधुकलश’ याद हो आई । ..किन्तु ये बेचारगी क्यों ? कवि सबकुछ खोकर भी ‘बेचारा’ नहीं हो सकता !”
जवाब मिठास तो नहीं था, किन्तु दिल को छू गया– “प्रिय बंधु ! आपने मेरी कविता पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दी, इसके लिए कोटिशः धन्यवाद । ज़िन्दगी के सभी रंग साहित्य में विभिन्न प्रकार के रसों के रूप में प्रतिबिंबित होते हैं । इन रंगों में कभी उत्साह व उन्माद की झलक मिलती है, तो कभी निराशा व अवसाद की । बच्चन जी की रचनाओं में 1936-41 के दौर में कई जगह ऐसे करूण भाव सहज ही देखे जा सकते हैं–
(‘मधुकलश’ भी इसी कालखंड का संग्रह है)
‘ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कोयल न कुहुक फिर पाएगी;
बुलबुल न अँधेरे में गा गा, जीवन की ज्योति जगाएगी ।’ (‘मधुबाला’ से)
मैं मूलतः संघर्षशील प्रवृति का हूँ । मैं कोई कवि नहीं हूँ और नियमित रूप से कविताएँ लिखता भी नहीं । भावों की तीव्रता की स्थिति में ये स्वतः जन्म लेती है और इनके माध्यम से पीड़ा से एक हदतक मुक्ति मिल जाती है । शेष शुभ है । आरटीआई से जुड़ा आपके कार्य बहुत सराहनीय रहा है । परोपकार से बड़ा कुछ भी नहीं ।