चेतन को गर्त में दबाते हुए
जान कितनी सस्ती हो
गयी ना लोगो की
या किसी धर्म
या दल का होना
ही अपराध हो गया
निरीह ,मासूमों के भी
बक्शा नही जाता
सियासत के युद्ध में
कानून किसी
कोने में पड़ा
सुबक रहा
आत्मसमर्पण के
कगार पर
मानव सम्वेदनाएँ
ये काली छाया
किस ग्रहण की है
जो खत्म नही हो रही
अधिकार मनुष्य
होने का भी
ग्रसित हो रहा
पाषाण ह्रदय हैं सारे
करुण ,पुकार
शिशुओं की भी इनके
आत्मा को नही छूती
नतमस्तक हूँ मैं
मांगती हूँ माफी उन सब
दिवंगत आत्माओं से
की मूक बनी रही
साक्षी बनी रही
इस अधम अन्याय को
देखते हुए
जड़ बन गयी
चेतन को कहीं
मजबूरियों के गर्त में
दबाते हुए।
— सविता दास सवि