लघुकथा

एक अनोखा मेला

एक मेला लगा, एक अजीब-सा मेला जिसमें सिर्फ दो दुकानें थीं, पर भीड़ काफी थी और उस मेले में जाने वाले को कुछ न कुछ खरीदना आवश्यक था। एक दुकान नफ़रत के व्यापारी मतलब हथियार का था, तो दूसरा खुशबूदार फूल और पौधों का।
मेला बहुत देर चला, काफी लोग फूल की दुकान पर आए पर ख़रीदारी बहुत कम लोगों ने की। दो तरह के लोगों ने ख़रीदारी की, पहले जिन्हें फूल-पौधों के शौक और उनसे प्यार था, दूसरे जिनके पास पैसे कम थे या घर को सजाना पसंद था।
हथियार के दुकान पर भीड़ कम थी क्योंकि वो महंगी दुकान थी पर बिक्री सबसे ज़्यादा उसी दुकान पर हुई, ख़रीदार उस दुकान से बड़े-बड़े हथियार खरीद कर शान से निकले। इस दुकान में भी दो किस्म के खरीददार आए, पहले जिसे अपनी शान-ओ-शौकत दिखाने का शौक था, दूसरे जिनके मन में ये भ्रम था कि हथियार से वे समाज में मजबूत हो जाएंगे।

शाम हुई, दोनों व्यापारियों ने अपने-अपने मुनाफ़े देखे, हथियार के व्यापारी का मुनाफा बहुत ज्यादा था।
कुछ दिनों बाद, कुछ ख़रीदार कुछ शिकायतें लेकर आये। फूलों के खरीदार ने शिकायत की, बीज खराब है, व्यापारी ने बिना कहे बीज बदल दिया क्योंकि उसे ख़रीदार बनाना था। व्यापारी भी खुश और ख़रीदार भी पक्का।
हथियार के ख़रीदार ने शिकायत की, हथियार काम नहीं कर रहा। व्यापारी ने पैसे देने या हथियार बदलने से मना कर दिया। करता भी क्यों न महंगी जो थी हथियार।
व्यापारी और खरीदार में झड़प हो गई। खरीदार ने हथियार का इस्तेमाल कर व्यापारी को घायल किया, दुकान भी तोड़ दिया।
दुकान गयी, खरीददार भी गया, व्यापारी घायल भी हो गया।

अब उस मेले में बस एक दुकान है फूल-पौधों की। अभी भी उसका मुनाफा ज्यादा नहीं बढ़ा पर संतुष्टि ज़रूर है की वो नफरत का नहीं प्रकृति को सुंदर बनाने की चीज़ों का व्यापार करता है।

अर्थात आपको वही मिलता है जो आप दूसरों को देते हैं।

✍️ दिव्या

दिव्या श्री मिश्रा

मैं बिहार की रहने वाली हूँ। पत्रकारिता की फर्स्ट ईयर की छात्रा हूँ। और खुद के जीवन और आस पास की घटनाओं को देखकर प्रेरित होकर लिखती हूँ।