मुक्तक/दोहा

मुक्तक

“मुक्तक”

चलो अब जा मिलें उनसे जो यादों में विचरते हैं।
कभी अपने रहें होंगे तभी दर पर भटकते हैं।
सुना है वक्त अपने आप भर देता है जख्मों को-
मगर निशान हैं अपने जो उड़ उड़ कर दहकते हैं।।

गर्वित है यह दिन सखे, गर्वित है यह रात।
इसी निशा के गर्भ में, थी स्वतंत्र सौगात।
पंद्रह को लाली खिली, माह अगस्त विराट-
नमन सपूतों को करूँ, और न कोई बात।।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ