फ़ेमिनिज़म
महिला सशक्तिकरण ये शब्द ही अपने आप में खोखला नहीं लगता? स्त्रीयों को निर्बल लाचार अबला समझने वाले एक बार नौ महीने 5 किलोग्राम वज़न पेढू पर बाँधकर रखें और नाक के छेद में से नारियल निकालने वाला, जाँघो को चीर देने वाला बच्चे को जन्म देते वक्त होने वाले दर्द से गुज़र कर देखे। फिर कहें की महिला अशक्त है या सशक्त। परिवार का वहन सामाजिक ज़िम्मेदारीयां और अब तो हर दूसरी स्त्री नौकरी करती है जो घर और ऑफिस हर मोर्चे पर बखूबी अपनी काबिलियत से अपना वजूद प्रस्थापित करती है।
फ़ेमिनिज़म एक एसी विचारधारा है जो स्त्री और पुरुष के समान अधिकारों का का समर्थन करती है। एसी विचारधारा ही क्यूँ ? पुरुष को प्रधान और स्त्री को दूसरे पायदान पर अबला, बेचारी सी खड़ी कर दी जाती है। जब की हर क्षेत्र में आज की स्त्री अग्रसर भूमिका निभाती है।
कई घरों में लड़के को उच्चतम शिक्षा, पालन-पोषण के साथ हर तरह की आज़ादी दी जाती है। उसके मुकाबले पहले तो लड़की के जन्म पर अफ़सोस जताया जाता है। जन्मी भी तो कई पाबंदियां लादी जाती है। लड़की के जन्म पर पेड़े के बदले जलेबियाँ क्यूँ बाँटी जाती है पेड़े क्यूँ नहीं। लड़कीयों की भावनाओं का कोई मोल नहीं। लड़कीयों को भी मानसिक और भावनात्मक आज़ादी का पूरा हक है। पुरानी और खोखली रवायतों को तोड़ कर अब लड़कीयों को पूरा मान सम्मान और अधिकार देना चाहिए।
अबला, लाचार और अशक्त जैसे शब्दों को शब्द कोश से हटा देने चाहिए ये शब्द ही हर इंसान के मानस में स्त्रीयां कमज़ोर होने के भाव पैदा करते है। अब स्त्री विमर्श में लिखना बंद करके स्त्री की शक्ति और क्षमता के किस्से लिखें जाए। बलात्कार होते क्यूँ है ? चार लोग साथ मिलकर टूट पड़ेंगे तो एक लड़की क्या कर सकती है। चार लड़कीयों के हवाले एक दरिंदे को कर दो नामों निशान ना मिटा डाले तो कहना। जो बच्चे को जन्म दे सकती है वो काली चंडी बनकर राक्षसों का वध भी कर सकती है।
आज जरूरत है बेटों को संस्कारों के दायरे में रखने की। वरना दुर्योधन और रावणों की वाली मानसिक नपुंसकता से पूरे समाज को दीमक की तरह खा जाएँगे। स्त्रीयों की सहनशीलता को मत ललकारो वो दिन दूर नहीं जो अपने पर आई तो एसे दरिंदों का कोख़ में ही वध कर देगी जो लड़कीयों को भोगने की चीज़ समझते है। स्त्री को अबला नहीं दुर्गा समझो। अब महिला सशक्तिकरण नहीं लड़कों के ससंस्करण करने का समय आ गया है।
— भावना ठाकर