कविता

फेकू बाबा

कोरोना का रोना लटपट
सांस भी छूट रही झटपट।।
आया दवा हुए लापरवाह
लगी कतारें सजी महफिल
फिर सुनसान का दामन थामने
सोचने लगी हैं सरकारें।।
मानव तेरी फितरत ने परेशां किया
जो चला जाने वाला था उसे वुलावा दिया।।
यूं तो रैलियां न निकाला कर
ऑन लाइन ही बुलाया कर
चुनाव हो या प्रचार हो
दो गज तू भी दूरी बनाया कर।।
खूब चला तेरा सिक्का जहां में
अब न इसे घिसाया कर
बात फेकने से हासिल क्या
अब न दूजा फेकू बनाया कर।।
बात घिस घिस के जवां हो गई
चौदह से अब इक्कीस हो गयी
दफ्तर हो गये निजी गुलदस्ते
उसमें बैठे कोरोना के फरिश्ते।।

— आशुतोष

आशुतोष झा

पटना बिहार M- 9852842667 (wtsap)